|| कर्ताकर्म अधिकार ||
रे आत्म आश्रव का जहाँ तक, भेद जीव जाने नहिं |
क्रोधादि में स्थित होए है, अज्ञानि ऐसे जीव की ||
जीव वर्तता क्रोधादि में, तब करम संचय होय है |
सर्वज्ञ ने निश्चय कहा, यों बन्ध होता जीव के ||
ये जीव ज्यों ही आश्रवों का, त्यों ही अपने आत्म का |
जाने विशेषांतर, तब ही बंधन नहिं उसको कहा ||
अशुचिपना, विपरीतता ये आश्रवों का जानके |
अरु दु:ख कारण जान के, इनसे निवर्तन जीव करे ||
मैं एक शुद्ध ममत्व हीन रु, ज्ञान दर्शन पूर्ण हूँ |
इसमे रहूँ स्थित लीन इसमें, शीघ्र ये सब क्षय करूँ ||
ये सर्व जीव निबद्ध, अध्रुव, शरणहीन, अनित्य हैं |
ये दु:ख, दुखफल जानके इनसे निवर्तन जीव करे ||
जो कर्म का परिणाम, अरु नोकर्म का परिणाम है |
सो नहीं करे जो मात्र जाने, वो हि, आत्मा ज्ञानि है ||
बहुभाँति पुद्गल कर्म सब, ज्ञानी पुरुष जाना करे |
पर द्रव्य पर्यायों न प्रणमें, नहिं ग्रहे, नहिं उपजे ||
बहुभाँति निज परिणाम सब, ज्ञानी पुरुष जाना करे |
पर द्रव्य पर्यायों न प्रणमें, नहिं ग्रहे, नहिं उपजे ||
पुद्गल कर्म का फल अनंत, ज्ञानि जन जाना करे |
पर द्रव्य पर्यायों न प्रणमें, नहिं ग्रहे, नहिं उपजे ||
इस भाँति पुद्गल द्रव्य भी, निज भाव से ही परिणमे |
पर द्रव्य पर्यायों न प्रणमें, नहिं ग्रहे, नहिं उपजे ||
जीवभाव हेतु पाय पुद्गल, कर्मरूप जु परिणमे |
पुद्गल कर्म के निमित से, यह जीव भी त्यो परिणमे ||
जीव कर्मगुण कर्ता नहीं, नहिं जीवगुण कर्म हि करे |
अन्योन्य के हि निमित्त से, परिणाम दोनों के बने ||
इस हेतु से आत्मा हुआ, कर्ता स्वयं निज भाव ही |
पुद्गलकरमक्रत सर्व भावों का कभी कर्ता नहीं ||
आत्मा करे निज को हि ये, मंतव्य निश्चयनय हि का |
अरुभोगता निजको हि आत्मा, शिष्य यों तू जानना ||
आत्मा करे बहुभाँति पुद्गलकर्म - मत व्यवहार का |
अरुवो हि पुद्गलकरम, आत्मा नेकविधमय भोगता ||
पुद्गलकरम जीव जो करे, उनको हि जो जीव भोगवे |
जिन को असम्मत द्वि क्रियासे, एकरूप आत्मा हुवे ||
जीवभाव पुद्गलभाव दोनों भाव को आत्मा करे |
इससे हि मिथ्याद्रष्टि, ऐसे द्विक्रियावादी हुवे ||
मिथ्यात्व जीव अजीव दोविध, उभयविध अज्ञान है |
अविरमण, योग रु मोह अरुक्रोधादि उभय प्रकार है ||
मिथ्यात्व अरु अज्ञान आदि अजीव, पुद्गल कर्म है |
अज्ञान अरु अविरमण अरु मिथ्यात्व जीव, उपयोग है ||
है मोहयुत उपयोग का परिणाम तीन अनादिका |
मिथ्यात्व अरु अज्ञान, अविरतभाव ये त्रय जानना ||
इससे हि है उपयोग त्रयविध, शुद्ध निर्मल भाव जो |
जो भाव कुछ भी वह करे, उस भावका कर्ता बने ||
जो भाव जीव करे स्वयं, उस भाव का कर्ता बने |
उस ही समय पुद्गल स्वयं, कर्मत्व रूपहि परिणमें ||
परको करे निजरूप अरु, निज आत्म को भी पर करे |
अज्ञानमय ये जीव ऐसा, कर्म का कारक बनें ||
पर को नहीं निजरूप अरु, निज आत्म को नहिं पर करे |
यह ज्ञानमय आत्मा अकारक कर्म का ऐसे बने ||
“मैं क्रोध” आत्मविकल्प यह, उपयोग त्रयविध आचरे |
तब जीव उस उपयोगरूप, जीवभाव का कर्ता बने ||
“मैं धर्म आदि” विकल्प यह, उपयोग त्रयविध आचरे |
तब जीव उस उपयोगरूप, जीवभाव का कर्ता बने ||
यह मंदबुद्धि जीव यों, परद्रव्य को निजरूप करे |
इस भाँति से निज आत्म को, अज्ञान से पर रूप करे ||
इस हेतु से परमार्थविद् , कर्ता कहें इस आत्म को |
यह ज्ञान जिसको होय, वो छोड़े सकल कर्तत्व ||
घटपटरथादिक वस्तुएं, कर्मादि अरु अब इंद्रियें |
नोकर्म विधविध जगत में, आत्मा करे व्यवहार से ||
पर द्रव्य को जीव जो करे, तो जरूर वो तन्मय बने |
पर वो नहिं तन्मय हुआ, इससे न कर्ता जीव है ||
जीव नहिं करे घट पट नहीं, नहिं शेष द्रव्यों जीव करे |
उपयोगयोग निमित्तकर्ता, जीव तत्कर्ता बने ||
ज्ञानवरण आदिक सभी, पुद्गल दरब परिणाम है |
कर्ता नहीं आत्मा उन्हे, जो जानता वो ज्ञानि है ||
जो भाव जीव करे शुभाशुभ, उस हि का कर्ता बने |
उसका बने वो कर्म, आत्मा उस हि का वेदक बने ||
जो द्रव्य जो गुण-द्रव्य में, पर द्रव्यरूप न संक्रमें |
अनसंक्रमा किस भाँति वह परद्रव्य प्रणमावे अरे ||
आत्मा करे नहिं द्रव्य-गुण पुद्गलमयी कर्मोंविसै |
इन उभयको उनमें न कर्ता, क्यों हि तत्कर्ता बने ||
जीव हेतुभूत हुआ अरे ? परिणाम देख जु बंध का |
उपचार मात्र कहाय यों, यह कर्म आत्मा ने किया ||
योद्धा करें जहाँ, वहाँ वह भूपकृत जनगण कहें |
त्यों जीवने ज्ञानवरण आदिक किए व्यवहार से ||
उपजावता, प्रणमावता ग्रहता, अवरू बांधे, करे |
पुद्गल दरब को आत्मा-व्यवहारनय वक्तव्य है ||
गुणदोष उत्पादक कहा ज्यों भूप को व्यवहार से |
त्यों द्रव्य गुण उत्पन्न कर्ता, जीव कहा व्यवहार से ||
सामान्य प्रत्यय चार, निश्चय बंध के कर्ता कहे |
मिथ्यात्व अरु अविरमण, योग कषाये ये ही जानने ||
फिर उनहिका दर्शा दिया, यह भेद तेर प्रकार का |
मिथ्यात्व गुणस्थानादि ले, जो चरमभेद सयोगिका ||
पुद्गल करम के उदय से, उत्पन्न इससे अजीव वे |
वे जो करें कर्मो भले, भोक्ता भि नहिं जीवद्रव्य है ||
परमार्थ से ‘गुण’ नामके, प्रत्यय करें इन कर्म को |
तिससे अकर्ता जीव है, गुणथान करते कर्म को ||
उपयोग ज्योंहि अनन्य जीव का क्रोध त्योंही जीवका |
तो दोष आवे जीव त्योंहि अजीव के एकत्व का ||
यों जगत में जो जीव वेहि अजीव भि निश्चय हुवे |
नोकर्म, प्रत्यय, कर्म के एकत्व में भी दोष ये ||
जो क्रोध यों है अन्य, जीव उपयोगआत्मक अन्य है |
तो क्रोधवत् नोकर्म, प्रत्यय, कर्म भी सब अन्य है ||
जीव में स्वयं नहिं बद्ध, अरु नहिं कर्मभावों परिणमे |
तो वोहि पुद्गल द्रव्य भी, परिणमन हीन बने अरे! ||
जो वर्गणा कार्माण की, नहिं कर्मभावों परिणमे |
संसार का ही अभाव अथवा सांख्यमत निश्चित हुवे ||
जो कर्म भावों परिणमावे जीव पुद्गल द्रव्य को |
क्यों जीव उसको परिणमावे, स्वयं नहिं परिणमत जो? ||
स्वयमेव पुद्गल द्रव्य अरु, जो कर्म भावों परिणमे |
जीवन परिणमावे कर्म को, कर्मत्व में मिथ्या बने ||
पुद्गल दरब जो कर्मपरिणत नियम से कर्महि बने |
ज्ञानावरण इत्यादि परिणत वोहि तुम जानो उसे ||
Негізгі бет 03.श्री समयसार गाथा पद्यानुवाद हिंदी (P3)- कर्ताकर्म अधिकार | Shri Samaysar Hindi Gath No. 69 to 144
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