Nauha 2024 || 9 Moharram, Anjuman Mazloomiyaa, Gauri Khalsa Hardoi, Lucknow, U.P ||
अंजुमन मज़लूमिया, गौरी खालसा, हरदोई, लखनऊ (+917668569932)
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नौहा -
शब्बीर को दिखता नहीं एक चांद का टुकड़ा।
हर लाश से अकबर का पता पूंछ रहे हैं।
किस ओर गया है वो मेरा गेसुओं वाला।
हर लाश से अकबर का पता पूंछ रहे हैं.......
इस कर्ब मे जी लेंगे कोई बात नहीं है।
ये दर्द भी सह लेंगे कोई बात नहीं है।
छुप छुप के भी रो लेंगे कोई बात नहीं है।
अकबर से भी कह देंगे कोई बात नहीं है।
बचपन मे जिसे होता है गोदी मे खिलाना।
होता है कठिन उसके जनाज़े को उठाना।
शब्बीर को दिखता नहीं एक चांद का टुकड़ा।
हर लाश से अकबर का पता पूंछ रहे हैं।
किस ओर गया है वो मेरा गेसुओं वाला।
हर लाश से अकबर का पता पूंछ रहे हैं.......
चलते हुए सरवर को मिला औन का लाशा ।
बोले कि यही है मेरे अकबर का जनाज़ा।
लाशे से सदा आई कि ये औन है तेरा।
देखा नहीं जाता है तुम्हे दश्त मे तनहा।
भाई मेरा ज़ख़्मों से बड़ा चूर है मामू।
अकबर का जनाज़ा तो अभी दूर है मामू।
शब्बीर को दिखता नहीं एक चांद का टुकड़ा।
हर लाश से अकबर का पता पूंछ रहे हैं।
उस वक़्त तो सरवर पे मुसीबत की घड़ी थी।
आगे तो निगाहों के जवां लाश पड़ी थी।
बरछी अली अकबर के कलेजे में लगी थी।
जो ज़ुल्फ़ थी जर्रार की वो ख़ूं में रंगी थी।
फिर ख़ाक पे एड़ी को रगड़ते हुए देखा।
शब्बीर ने अकबर को तड़पते हुए देखा।
शब्बीर को दिखता नहीं एक चांद का टुकड़ा।
हर लाश से अकबर का पता पूंछ रहे हैं।
कहते थे कि खेती मेरी बरबाद हुई है।
क्या क्या न जफ़ा आज मेरे साथ हुई है।
ऐ दश्ते बला ये भी कोई बात हुई है।
क्यूं देर में अकबर से मुलाक़ात हुई है।
रूमाल से सीने का लहू पोंछ रहे हैं।
शब्बीर भी अब दश्त में कुछ सोंच रहे हैं।
शब्बीर को दिखता नहीं एक चांद का टुकड़ा।
हर लाश से अकबर का पता पूंछ रहे हैं।
सोचा था कि आएगा कभी वक़्त सुनहरा।
हाथों से सजा लेंगे जवां लाल का सेहरा।
फूलों से सजा होगा कोई चांद सा चेहरा।
निकलेगा किसी रोज़ तो अरमान भी दिल का।
तै कर दिया क़िस्मत ने कि नाशाद रहेंगे।
जो ख़्वाब थे शादी के वो बस ख़्वाब रहेंगे।
शब्बीर को दिखता नहीं एक चांद का टुकड़ा।
हर लाश से अकबर का पता पूंछ रहे हैं।
गो सीने में होगी वो अभी दर्द की शिद्दत।
कुछ देर में मिल जाएगी अकबर तुम्हे राहत।
हो जाएगी कम ज़ख्मे जिगर की ये अज़ीय्यत।
मैं तुमको करा दूंगा बहन की भी ज़ियारत
अकबर हो सलामत वो वफ़ा मांग रही है।
सुग़रा भी तेरे हक़ में दोआ मांग रही है।
शब्बीर को दिखता नहीं एक चांद का टुकड़ा।
हर लाश से अकबर का पता पूंछ रहे हैं।
किरदारे अज़ा शह ने बड़ी देर ये सोंचा।
हम कैसे उठाएंगे जवां लाल का लाशा।
तनहाई भी ऐसी कि नहीं साथ में साया।
क्या ग़म था जो अब्बास मेरे साथ मे होता।
तनहाई में लाशा ये कोई तौर है अकबर।
मालूम है तुमको तो मेरा कौन है अकबर।।
शब्बीर को दिखता नहीं एक चांद का टुकड़ा।
हर लाश से अकबर का पता पूंछ रहे हैं।
हाथों से समेटे हुए बरसों की कमाई।
शब्बीर ने यह लाश भी रुक रुक के उठाई।
फिर याद बहुत दश्त में अब्बास की आई।
कहते थे चला भी नहीं जाता है दुहाई।
मक़तल में कई बार क़ज़ा लूट चुकी है।
अब्बास के मरने से कमर टूट चुकी है।
शब्बीर को दिखता नहीं एक चांद का टुकड़ा।
हर लाश से अकबर का पता पूंछ रहे हैं।
कलाम - ज़फ़र मेंहदी ' किरदार '
धुन - बॉबी नक़वी इलाहाबादी
Poetry - Zafar Mehndi 'Kirdar'
Tune - Bobby Naqvi
Recitation - Anjuman Mazloomiya
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Негізгі бет शब्बीर को दिखता नहीं एक चांद का टुकड़ा Anjuman Mazlumiya Gauri Khalsa,(Hardoi) UP.9 Muharram 2024
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