Written and Composed by Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj
Prem ras Madira- Sadguru Madhuri
अस रस महँ मोहिं सद्गुरु बोरी।
धर्म अर्थ अरु काम मोक्ष रस, सबै लगत मो फीको री।
कहँ लौं कह बैकुण्ठ-लोक हूँ, रुचि नहिं टुक सपनेहुँ मोरी।
इक भावत चंचल नंदनंदन, इक वृषभानुलली भोरी।
गिरिजा-अजा-जलधिजा-दुर्लभ, पियत रास रस ब्रजखोरी ।
कह 'कृपालु' अस सद्गुरु ऋण ते, उऋण न कोटि कल्प कोरी।
भावार्थ-एक शरणागत शिष्य कहता है कि मुझे मेरे सद्गुरु ने ऐसे प्रेमरस में डुबो दिया है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पदार्थ उस रस के आगे फीके लगते हैं । कहाँ तक कहें बैकुण्ठ लोक का सुख भी स्वप्न में नहीं प्रिय लगता है । बस एक चंचल श्याम सुन्दर एवं भोली-भाली राधारानी ही प्रिय लगती हैं । अब मैं ब्रह्माणी, रुद्राणी, लक्ष्मी आदि से भी दुर्लभ रास-रस को ब्रज की कुंजों में निरन्तर पीता हूँ । 'कृपालु' कहते हैं कि ऐसे सद्गुरु के ऋण से मैं करोड़ों कल्प में भी उऋण नहीं हो सकता ।
Негізгі бет Музыка Asa Rasa Mahan Mohin Sadguru Bori | Kripaluji Maharaj Sankirtan | Sadguru Madhuri
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