लेकर आये, जो आगे चलकर बस्तर राज्य में ही बस गए। राजा पुरूषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी से वरदान स्वरूप मिले सोलह चक्कों के रथ का विभाजन करते हुए रथ के चार चक्कों को भगवान जगन्नाथ को समर्पित कर दियाnऔर शेष 12 पहियों का विशाल काष्ठ रथ माँ दन्तेश्वरी को अर्पित कर दिया, तब से दशहरा में दन्तेश्वरी के छत्र के साथ राजा स्वयं भी रथारूढ़ होने लगे। मधोता ग्राम में पहली बार दशहरा रथ यात्रा संवत् 1468-69 (1411-12 ई.) के लगभग प्रारंभ हुई। कई वर्षों के बाद 12 चक्कों के रथ संचालन में असुविधा होने के कारण आठवें क्रम के शासक राजा वीरसिंह ने संवत् 1610 के पश्चात् आठ पहियों का विजय रथ और चार पहियों का फूल रथ प्रयोग में लाया। तब से लेकर यह परम्परा आज भी निर्बाध रूप से जारी है।
रियासत काल में राजा मांई दन्तेश्वरी का छत्र लेकर स्वयं रथों पर विराजमान होते थे, इन रथों पर राजपिवार की कुल देवी, मांँ दुर्गा के एक रूप, मांँ दन्तेश्वरी के छत्र को रथयात्रा के दौरान रथ पर आरूढ़ किया जाता है। इसलिए बस्तर दशहरा में फूल रथ चार चक्कों वाला रथ होता है तथा भीतर रैनी और बाहर रैनी के लिए आठ चक्कों के रथ परिक्रमा का विधान है। प्रतिवर्ष एक नया रथ निर्माण किया जाता है। एक वर्ष चार चक्कों का होता है, वहीं दूसरे वर्ष आठ चक्कों का रथ निर्माण किया जाता है। प्रतिवर्ष आयोजन होने वाले दशहरा पर्व में मूल रूप से दो विशालकाय रथ परिक्रमा के लिए उपयोग में लाए जाते है। प्रत्येक रथ निर्माण के लिए लगभग 55 से 60 घनमीटर विशेष प्रजाति की लकड़ियों की आवश्यकता होती है जिसका मूल्य समय के अनुसार लाखों रूपये का आंका गया है। कोई भी रथ दो वर्षों के परिक्रमा बाद चलन से बाहर कर दिया जाता है।
बस्तर के जनजातीय समाज में पशु-पक्षियों की बलिप्रथा बहुतायत में पाई जाती है। कई मामलों में देवी-देवताओं के पसंद के अनुरूप तथा रंग के आधार बलि दी जाती है। कई बार संबंधित देवी-देवताओं को खुश करने के उद्धेश्य से रंग विशेष का बकरा अर्पित करने का मन्नत मांगता है जो पूर्ण हो जाने के बाद उसे पूरा करता है, अपने आप में महत्व रखता है।
पाठ जात्रा
विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा का विधिवत् शुभारंभ श्रावण मास के अमावस्या से अर्थात् हरियाली अमावस्या से प्रारंभ होता है। दशहरा पर्व विधान के तहत प्रतिवर्ष रथ यात्रा के लिए रथ निर्माण किया जाता है। अमावस्या के दिन नवीन रथ निर्माण के लिए लकड़ी का एक बड़ा टुकड़ा लाया जाता है जिसे ‘टुरलु खोटला’ कहा जाता है। इस लकड़ी के टुकड़े को स्थानीय दन्तेश्वरी मांई मंदिर के सामने रखा जाता है और रथ निर्माण में लगने वाले औजारों के साथ पूजा अर्चना की जाती है। जिसे ‘पाठ जात्रा’ कहा जाता है। मांझी, मुखिया, चालकी, मेम्बरिन, जनप्रतिनिधियों, विधायक, और गणमान्य नागरिकों के समक्ष पुजारी के द्वारा विधिवत् टुरलु खोटला पूजा का उद्धेश्य यह होता है कि जिस निमित्त लकड़ी का तना लाया गया है, उसकी तथा अन्य स्थानीय देवी-देवताओं के साथ-साथ राज्य की देवी अर्थात् दन्तेश्वरी देवी की आराधना की जाती है। लोक-विश्वास है कि जिन देवी-देवताओं को पर्व विशेष के लिए आव्हान किया है, वे देवी-देवता पर्व समाप्ति तक कहीं अन्यत्र न जायें और पर्व निर्विघ्न सम्पन्न हो, लकड़ी के मोटे कुंदे पर कीलों को गाड़कर अपने विश्वास को दृढ़ करते आज भी देखा जा सकता है।
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Негізгі бет बस्तर का ऐतिहासिक दशहरा पर्व: बस्तर दशहरा यहाँ रावण नहीं मारा जाता BASTAR Dussehra
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