जय गुरुदेव
हिन्दू धर्म में मोक्ष का बहुत महत्त्व है। यह मनुष्य जीवन चार उद्देश्यों में बांटा गया है- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। ये पुरुषार्थ चतुष्टय कहलाते हैं। इनका वर्णन वेदों व अन्य हिन्दू धार्मिक पुस्तकों में पाया जाता है। ये चारों आपस में गहरा संबन्ध रखते हैं। धर्म का अर्थ है वे सभी कार्य जो आत्मा व समाज की उन्नति करने वाले हों। अर्थ से तात्पर्य है किसी अच्छे कलात्मक कार्य द्वारा धनार्जन करना। काम का अर्थ है जीवन को सात्विक व सुःख सुविधासंपन्न बनाना। मोक्ष का अर्थ है आत्मा द्वारा अपना और परमात्मा का दर्शन करना। आत्मा को मोक्ष भगवान की कृपा से प्राप्त होता है। भगवान की कृपा उन्ही आत्माओं पर होती है जिन्होंने शरीर में रहते हुए अच्छे कर्म किए हों। मोक्ष प्राप्ति के लिए मनुष्य को अष्टांग योग भी अपनाना चाहिए। अष्टांग योग का वर्णन महर्षि पतंजलि ने अपने ग्रंथ योगसूत्र में किया है। गीता में भी योग के बारे में वर्णन है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रंथ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में भी अष्टांग योग के बारे में वर्णन किया है।
बौद्ध दर्शन में निर्वाण की कल्पना मोक्ष के समानांतर ही की गई है। "निर्वाण" शब्द का अर्थ है, बुझ जाना। निर्वाण शब्द की इस व्युत्पत्ति के मूल अर्थ को लेकर आलोचकों ने निर्वाण के सिद्धान्त को निरर्थक बना दिया है। उनका मानना है कि निर्वाण का अर्थ है सभी मानवीय भावनाओं का बुझ जाना, जो मृत्यु के सामान है। इस प्रकार के अर्थ द्वारा निर्वाण के सिद्धांत का उपहास बनाने की कोशिश की है। दूसरी बात है कि आलोचक 'निर्वाण' और 'परिनिर्वाण' में भेद करना भी भूल गए हैं। "जब शरीर के महाभूत बिखर जाते हैं, सभी संज्ञाएँ रुक जाती हैं, सभी वेदनाओं का नाश हो जाता है, सभी प्रकार की प्रतिक्रया बन्द हो जाती है और चेतना जाती रहती है, परिनिर्वाण कहलाता है। निर्वाण का कभी भी यह अर्थ नहीं हो सकता। निर्वाण का अर्थ है अपनी भावनाओं पर पर्याप्त संयम रखना, जिससे आदमी धर्म के मार्ग पर चलने के योग्य बन सके। तथागत बुद्ध ने यह स्पष्ट किया था की सदाचरणपूर्ण जीवन का ही दूसरा नाम निर्वाण है। निर्वाण का अर्थ है वासनाओं से मुक्ति। निर्वाण प्राप्ति से सदाचरणपूर्ण जीवन जिया जाता है। जीवन का लक्ष्य निर्वाण ही है। निर्वाण ही ध्येय है। निर्वाण माध्यम मार्ग है। निर्वाण आष्टागिक-मार्ग के अतिरिक्त कुछ नहीं है। बौद्ध दर्शन में भी बंधन का कारण तृष्णा, वितृष्णा तथा अविद्या को माना गया है। जब आदमी इन बंधनों से मुक्त हो जाता है तो वह निर्वाण प्राप्त करना जन जाता है और उसके लिए निर्वाण-पथ खुल जाता है। इसके लिये अष्टांगिक मार्ग की व्यवस्था की गई है। वे इस प्रकार हैं: सम्यग् दृष्टि, सम्यग् संकल्प, सम्यग् वचन, सम्यग् कर्म, सम्यग् जीविका, सम्यग् प्रयत्न, सम्यग् स्मृति और सम्यग् समाधि। इनमें से प्रथम दो ज्ञान, मध्य के तीन शील एवं अंतिम तीन समाधि के अंतर्गत आते हैं। इस मार्ग का अनुसरण करने पर तृष्णा का निरोध होता है, तृष्णा के निरोध से संग्रह प्रवृति का निरोध होता है। इस प्रकार की मुक्ति जीवन में भी संभव है, किंतु मृत्यूपरांत निर्वाण का क्या स्वरूप होगा, इसे निषेधात्मक रूप से बतलाया गया है। एक प्रकार से वह शल्नय के समान है।
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Негізгі бет भोग कभी संतुष्ट नहीं करता | मै मरा हुआ ही हूँ| योगी बुद्धि प्रकाश |
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