मद्रास प्रांत में त्रिचनापल्ली के पास एक स्थान है उदयूर।
इसका पुराना नाम निचुलापुरी है । यह वैष्णवों का एक
पवित्र तीर्थ है । आज से लगभग एक हज़ार वर्ष पूर्व यहां
एक धर्नुदास नाम का पहलवान रहता था। अपने बल
तथा अद्भुत आचरण के लिये धनुर्दास प्रख्यात था ।
दक्षिण भारत में धनुर्दास को पिल्लै उरंगा विल्ली के
नाम से जाना जाता है । धनुर्दास राजा के सभा के एक
महान पहलवान थे । उस पहलवान ने हेमाम्बा नामक
एक अत्यंत सुन्दर वेश्या की सुन्दरता पर बहुत मोहित
होकर उसे अपनी प्रेयसी बनाकर घर मे रख लिया था।
वह उस वेश्या के रूप पर इतना मोहित था की जहां
भी जाता, उसे साथ ले जाता । अंत में उसके रूप में
आसक्त होकर उसे अपनी पत्नी बना लिया , स्त्री ने
भी उसे पति रूप में स्वीकार कर लिया था ।
रास्ते से जब धनुर्दास चलता तो स्त्री के आगे-आगे
उसे देखते हुए पीठ की ओर उलटे चलता । कही
बैठता तो उस स्त्री को सामने बैठाकर ही बैठता ।
उसका व्यवहार सबके लिए कौतूहलजनक था; परंतु
वह निर्लज्ज होकर उस स्त्री को देखना कभी भी
नही छोड़ता था । दक्षिण भारत का एक सर्वश्रेष्ठ तीर्थ
है - श्रीरंग क्षेत्र । त्रिचनपल्ली से यह श्रीरंगम् पास
ही है। वर्ष में कई बार यहां महोत्सव होता है। दूर-दूर
से लाखों यात्री आते है । एक बार श्रीरंगनाथ का
वासन्ती महोत्सव (चैत्रोत्सव)चल रहा था। धर्नुदास
जी की प्रेयसी ने भी उत्सव देखना चाहा। धर्नुदास
उसे तथा नौकरों चाकरों के साथ श्रीरंगम् आ गया।
गर्मी के दिन थे । धर्नुदास एक हाथ में छाता लेकर
अपनी प्रेयसी को छाया किए हुए था और स्वयं
धूप में, पसीने से लथपथ होकर उस स्त्री की ओर
मुख करके पीठ की ओर पीछे चल रहा था। उसे
अपने शरीर का ध्यान तक नहीं था। उन दिनों
श्रीरामानुजाचार्य जी श्रीरंगम् में ही थे। दूसरों के
लिए तो धर्नुदास का यह कृत्य पुराना था, नवीन
यात्री उसे कुतूहल से देख रहे थे। श्रीरामानुज
स्वामी जी के लिए इस पुरुष का व्यवहार बहुत
ही अद्भुत था । उन्होंने आपने अपने शिष्यों से पूछा
- वह निर्लज्ज कौन है?परिचय पाकर शिष्य को
कहा - उससे जाकर कहो कि तीसरे पहर मठ
पर आकर वह मुझसे मिले।
धर्नुदास ने उस शिष्य से स्वामी का का आदेश सुना
तो सन्न हो गया ; वह समझ गया आचार्य स्वामी
अवश्य मेरी निर्लज्जता पर बिगड़े होंगे । बिगड़ने
की तो बात ही है। सब लोग जहां श्रद्धा -भक्ति से
भगवान् के दर्शन करने आएं है, वहां भी मैं एक
स्त्री के सौन्दर्य पर मुग्ध हूं। मठ पर जाने पर मुझे
डांट सुननी पड़ेगी। डरते हुए वह मठ मे आया ।
भोजन करके धर्नुदास मठ पहुँच गया । समाचार
पाकर श्री रामानुजा स्वामी ने उसे मठ के भीतर
बुला लिया और उसके अद्भुत व्यवहार का कारण
पूछा । धर्नुदास ने बताया - स्वामी ! मैं उस स्त्री
के सौन्दर्य पर पागल हो गया हूं । उसे देखे बिना
मुझ से रहा नहीं जाता। मैं उसे न देखूं तो बेचैन
हो जाता हूं। महाराज ! आप जो आज्ञा करें, मै
वही करूँगा, बस उसका साथ छोड़ने को मत
कहना । श्रीरामानुज स्वामी ने कहा - यदि हम
उससे बहुत अधिक सुन्दर मुख तुम्हें दिखलायें
तो?
धर्नुदास ने कहा - महाराज ! उससे सुन्दर मुख
देखने को मिले तो मै उस स्त्री का एकदम
परित्याग कर सकता हूं। श्री स्वामी जी ने कहा
- ऐसा नहीं ! उसका परित्याग तुम मत करो ।
वह वेश्या थी, तुम्हारे पास आकर अब तुम्हारी
स्त्री हो गई । तुम छोड़ दोगे तो फिर वेश्या हो
जाएगी। ऐसा नहीं होना चाहिए। वह अब सुधर
गई है। उसे तुम पत्नी बनाकर अपने यहाँ रहने
दो । तुम जो उसके रूप पर इतने मुग्ध हो,
बस, यह ठीक नही है। तुम्हें स्वीकार हो तो
संन्ध्या के समय जब श्रीरंगनाथ की आरती
होती है, उस समय तुम मन्दिर में आकर
मुझसे मिलना। अकेले ही आना।
धर्नुदास आज्ञा पाकर विदा हुआ। उसे बड़ा
आश्चर्य हो रहा था । आचार्य स्वामी ने उस
जैसे नीच पुरुष को मठ में भीतर बुलाया,
पुत्र की भांति स्नेह से पास बिठाया और
बिना डांटे-फटकारे विदा कर दिया। उसे
तो आशा की थी कि आचार्य स्वामी उसे
बहुत कुछ कहेंगे। वह भय से थर-थर
कांपता आया था, कि कहीं मुझे शाप न दे
दें। वह सब कुछ तो नहीं हुआ। घर आकर
उसे स्त्री से सब बातें कह दीं। वह स्त्री भी
नहीं चाहती थी कि धर्नुदास इस प्रकार उस
पर लट्टू रहे, मार्ग में धर्नुदास उसके आगे-
आगे पीछे की ओर चले। वह व्यवहार उसे
भी लज्जाजनक जान पड़ता था । वह अब
सच्चे हृदय से धर्नुदास की पत्नी थी। वह
उसका सुधार चाहती थी, किंतु इस भय से
कि धर्नुदास उसे छोड़ न दे, कुछ कहती नहीं
थी। उसे प्रसन्नता हुई इस आशा से कि
आचार्यस्वामी धर्नुदास को कदाचित् सुधार देंगे ।
जब संध्या समय धर्नुदास श्रीरंगजी के मन्दिर में
गया तो उसे किसी ने भीतर जाने से रोका नहीं।
श्री रामानुजस्वामी ने भगवान् श्रीरंगनाथ से
मन्दिर में जाकर उसी समय प्रार्थना की - मेरे
दयामय स्वामी ! एक विमुख जीव को अपने
सौन्दर्य से आकर्षित करके श्री चरणों में स्वीकार
करो।
फिर स्वामी जी ने उसको ध्यानपूर्वक आरती के
समय भगवान के दर्शन करने को कहा। धर्नुदास
तो आरती के समय ही एकदम बदल गया।
करोड़ो कामदेवों को लज्जित करने वाले भगवान
की एक झलक पाई और जब वह झांकी अदृश्य
हो गई तो वह पागल की भांति आचार्य स्वामी के
चरणों में लिपट गया । उसने फूट-फूट कर रोते
हुए कहा - स्वामी ! मुझे जो आज्ञा दो, मैं वहीं
करूंगा । कहो तो मैं अपने हाथ से अपने देह की
बोटी-बोटी काट दूंगा पर वह त्रिभुवनमोहन मुख
मुझे दिखलाओ । ऐसी कृपा करो कि वह मुख मेरे
नेत्रों के सामने ही रहे।
धर्नुदास आचार्य स्वामी के समझाने से घर आया।
अब स्त्री तो उसे बहुत ही कुरूप जान पड़ने लगी।
वह आचार्य स्वामी की आज्ञा से ही उसे पत्नी बनाये
रखा था, उसका त्याग नहीं किया । कुछ दिनों बाद
वे दोनों श्रीरामानुजाचार्य जी के शिष्य हो गए।
श्रीस्वामी जी ने भी दोनों को साम्प्रदाय के विषय में
बहुत ज्ञान दिया। दोनों का आचरण आदर्श हो गया।
धर्नुदास आचार्यस्वामी का अत्यंत विश्वस्त अनुचर हो
गया।
Негізгі бет भगवान के भक्त धनुर्दास जी
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