Class 8.22 summary
सूत्र सात चक्षु-रचक्षु-रवधि-केवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला प्रचलाप्रचलास्त्यान-गृद्धयश्च में
आचार्य महाराज ने दर्शनावरणीय कर्म के नौ भेदों को
विभक्ति तोड़कर चार और पाँच कर्मों को अलग-अलग बताया है
जैसे ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को प्रतिबन्धित करता है
वैसे ही पहले चार कर्म - चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शनावरण कर्म
आत्मा के दर्शन स्वभाव यानि वस्तु के सामान्य अवलोकन को रोकते हैं
हमने जाना कि ज्ञान हमेशा विशेष को जानता है और दर्शन सामान्य को
क्षयोपशम दशा में ज्ञान दर्शन से पहले होता है
और क्षायिक दशा में साथ-साथ होता है
दर्शन और ज्ञान का यह सम्बन्ध दार्शनिक है
और सैद्धान्तिक रूप में लौकिक व्यवहार दर्शन से अलग है
दर्शनावरणीय कर्म इन्द्रिय या मन से होने वाले ज्ञान से पहले होने वाले,
अवलोकन को प्रतिबन्धित करते हैं
प्रत्येक इन्द्रिय से वस्तु को जानने से पहले का सामान्य अवलोकन दर्शन होता है
इसमें बस कुछ है का प्रतिभास होता है
यह सामान्य किमात्मक होता है
जिसमें वस्तु की जाति, गुण, क्रिया, धर्म आदि विशेषतायें ग्रहण नहीं होती
वस्तु की लम्बाई, रंग आदि विशेषता ग्रहण करना हमारा ज्ञान होता है
दर्शन बहुत fast और सूक्ष्म रूप से काम करता है
दर्शन की विशेषता हम केवल
इसकी परिभाषा समझ कर
और श्रद्धान करके समझ सकते हैं
यह हमारी पकड़ में नहीं आता
चक्षु दर्शनावरण कर्म चक्षु इन्द्रिय से होने वाले चक्षु दर्शन को प्रतिबन्धित करता है
सामान्य तौर पर हम नेत्र से वस्तु देखने को दर्शन कहते हैं
लेकिन यहाँ पदार्थ देखने से पहले के सामान्य प्रतिभास को दर्शन कहा है
यह प्रतिभास प्रत्येक इंद्रिय ज्ञान से पहले होता है
जैसे कर्ण से शब्द सुनने, मन में विचारने से पहले भी होता है
चक्षु दर्शनावरण कर्म के कारण या तो चक्षु इन्द्रिय की उत्पन्न नहीं होती या वो काम नहीं करती
एक से तीन इन्द्रिय जीवों में तो यह नियम से होता है
इसके तीव्र उदय में चार इंद्रिय, पंचेन्द्रिय जीव भी
चक्षु इन्द्रिय का उपयोग कर सामान्य अवलोकन नहीं कर पाते
जैसे रोग, जन्म आदि जनित अंधता के कारण
अचक्षु दर्शन चक्षु इन्द्रिय के अलावा - स्पर्शन, रसना, घ्राण, कारण इन्द्रिय और मन से होता है
और अचक्षु दर्शनावरण कर्म इसको आवरित करता है
हमारे लिए मतिज्ञान, श्रुतज्ञान दो ही ज्ञान
और चक्षु, अचक्षु दर्शन दो ही दर्शन काम आते हैं
एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सब जीवों में होने के कारण
अचक्षु दर्शन ज्यादा व्यापक है
हमने जाना कि ज्ञान और दर्शन की अविनाभाव सम्बन्ध के साथ व्याप्ति है
इनकी परिणतियाँ एक साथ चलती हैं
जहाँ ज्ञान, वहाँ दर्शन
क्षायोपक्षमिक ज्ञान तो क्षायोपक्षमिक दर्शन
क्षायिक ज्ञान तो क्षायिक या अनंत दर्शन
इसलिए निगोद जीव के ‘नित्य उद्घाटित ज्ञान’ की तरह
कुछ अचक्षु दर्शन भी हमेशा जीव के पास होता है
अचक्षु दर्शन क्षयोपशम दशा के अनुसार कम-ज्यादा होता है
जीव अचक्षु के माध्यम से भी अपना ज्ञान कर लेता है
जैसे हम पीठ के पीछे हो रही गतिविधियाँ
कौन सा जीव चल रहा है आदि
का ज्ञान कर लेते हैं
उससे पहले जो होता है उसे हम व्यवहार में अचक्षु दर्शन समझ सकते हैं
चक्षु, अचक्षु दर्शन के सामन ही
अवधिदर्शन अवधिज्ञान होने से पहले होने वाला पुद्गल का सामान्य प्रतिभास होता है
और अवधि दर्शनावरणीय कर्म इसको आवरित करता है
केवल दर्शन केवलज्ञान के साथ होने वाला दर्शन है
केवली भगवान सभी पदार्थों को प्रत्यक्ष रूप से
हर समय
एक साथ
सामान्य और विशेष रूप से जानते हैं
हमने जाना कि मन:पर्यय नाम का कोई आवरणीय कर्म नहीं होता
अतः ज्ञान और दर्शन की आपस में व्याप्ति सिर्फ चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शन में है
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