हमारे यहां दीनियत की पूरी तालीम का आम तरीका यह रहा है कि तलवा को ज्यादातर मसले मसाइल पढ़ाई जाते हैं, जिनमे नमाज रोजा पाकी नापाकी और इसी तरह की दूसरी चीजों की तस्वीर होती है। आकिदे की तालीम इसके मुकाबले में कुछ कम होती है और जो होती है उससे कोई खास नतीजा हासिल नहीं होता। पढ़ने वालों को आखिर वक्त तक यह मालूम नहीं होता कि इस्लाम किया है, क्या चाहता है और क्यों चाहता है, इस्लामी आकीदे का इंसान की जिंदगी से क्या ताल्लुक है ? वे अगर मान जाएं तो फायदा क्या है, और अगर न माने जाएं तो नुकसान क्या है ? इस्लाम सिर्फ हुक्म देकर उन अकीदो को मनवा लेना चाहता है या उसके पास उनके सही और सच्चे होने की दलीलें भी है। ये तमाम चीजें दीन की समझ और अकीदे को ठीक करने के लिए बहुत जरूरी है। जब तक ये अच्छी तरह समझ न ली जाए सिर्फ मसले मसाइल को बता देने से कोई फायदा नहीं होता, क्योंकि ईमान के बगैर अहकाम की इताअत मुमकिन नहीं, और अकीदे को ठीक ठीक समझने से ही ईमान मजबूत हो सकता है।।।
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Abdullah S.
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