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दुर्गा पूजा के प्रत्येक दिन का महत्व
दुर्गा पूजा में षष्ठी तिथि का महत्व:
दुर्गा पूजा की विधिपूर्वक शुरुआत का आरम्भ षष्ठी तिथि से होता है और इस दिन को महालय कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि महालय के दिन देवों और असुरों में भयंकर युद्ध हुआ था जिसमे अनेक देवताओं और ऋषियों की मृत्यु हुई थी। इस युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुए सभी देवताओं और ऋषियों को महालय पर तर्पण दिया जाता है। षष्ठी तिथि पर बिल्व निमंत्रण पूजा, कल्पारंभ, अकाल बोधन, आमंत्रण और अधिवास का विधान है।
दुर्गा पूजा में सप्तमी तिथि का महत्व
दुर्गा पूजा का प्रथम दिन होता है महासप्तमी और इस दिन नवपत्रिका पूजा को विधि-विधान से करने की परम्परा रही है। नवपत्रिका को कलाबाऊ पूजा के नाम से भी जाना जाता हैं। बंगाल, असम और ओडिशा आदि राज्यों में नौ तरह की पत्तियों से दुर्गा पूजा को सम्पन्न करने का विधान है। इस पूजा के अंतर्गत जिन नौ पत्ते का प्रयोग किया जाता हैं। उनमें हर एक पेड़ का पत्ता देवी के नौ स्वरूपों का प्रतिनिधित्व करता हैं। नवपत्रिका के नौ पत्ते इस प्रकार हैं, केला, कच्वी, हल्दी, अनार, अशोक, मनका, धान, बिल्वा और जौ आदि।
दुर्गा पूजा में अष्टमी तिथि का महत्व
दुर्गा पूजा का द्वितीय दिन महाष्टमी के रूप में मनाया जाता है जिसे महा दुर्गाष्टमी भी कहा जाता हैं। महाष्टमी पर देवी दुर्गा की पूजा का विधान महासप्तमी के समान ही होता है, लेकिन इस दिन प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाती है। महाष्टमी तिथि पर महास्नान करने के बाद देवी दुर्गा की षोडशोपचार पूजा की जाती है। महाष्टमी के दिन मिट्टी से बने नौ कलश स्थापित किये जाते हैं, साथ ही माता दुर्गा के नौ रूपों का ध्यान कर उनका आह्वान किया जाता है। महाष्टमी पर मां दुर्गा के नौ स्वरूपों का पूजन होता है।
दुर्गा पूजा में नवमी तिथि का महत्व
महानवमी तिथि दुर्गा पूजा उत्सव का तीसरा एवं अंतिम दिन होता है और इस दिन का आरम्भ भी महास्नान तथा षोडशोपचार पूजन के साथ होता है। महानवमी के दिन देवी दुर्गा की उपासना महिषासुर मर्दिनी के रूप में की जाती है जिसका अर्थ होता है दुष्ट असुर महिषासुर का नाश करने वाली। पौराणिक मान्यता है कि नवमी तिथि पर देवी दुर्गा ने महिषासुर का संहार किया था। इस दिन महानवमी पूजा, नवमी हवन और दुर्गा बलिदान जैसी परंपराओं को निभाया जाता है।
दुर्गा पूजा में दशमी तिथि का महत्व
दशमी तिथि को विजयदशमी के रूप में भी मनाया जाता है। इस दिन भक्तों द्वारा माता दुर्गा की प्रतिमाओं की ढोल-नगाड़ों के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है। देवी दुर्गा की प्रतिमाओं को विसर्जित करने के लिए निकट के जलाशयों या नदी पर ले जाया जाता है। इसके बाद भक्तगण देवी दुर्गा को आस्था एवं भक्तिभाव से विदा करते है।
दुर्गा पूजा का महत्व
सनातन धर्म में आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से लेकर दशमी तिथि तक मनाये जाने वाले शारदीय नवरात्रि की विशेष महत्ता है और इन्ही शारदीय नवरात्रि के दौरान दुर्गा पूजा का उत्सव भी मनाने का विधान है। दुर्गापूजा, नवदुर्गा और नवरात्रि चाहे इस पर्व को किसी भी नाम से पुकारा जाए, लेकिन इन 9 दिनों की धूम और रौनक देश भर में दिखाई देती है जो वातावरण और मन दोनों को भक्तिमय बना देती है। इसी प्रकार दुर्गा पूजा के अंतिम दिन विजयदशमी को भी बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में धूमधाम से मनाने का प्रचलन है।
शारदीय नवरात्रि में विभिन्न प्रकार के रीति-रिवाज़ एवं धार्मिक अनुष्ठान को सम्पन्न किया जाता हैं, जो हृदय को आस्था, प्रेम एवं अध्यात्म से भर देता है। शरद नवरात्रि एवं दुर्गा पूजा दोनों ही आदिशक्ति माता दुर्गा को समर्पित होते है। माँ दुर्गा की उपासना के पर्व की रौनक देशभर में देखने को मिलती है।
दुर्गा पूजा का धार्मिक महत्व
दुर्गा पूजा में देवी दुर्गा की उपासना एवं आराधना की जाती है। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि देवी दुर्गा द्वारा बुराई के प्रतीक राक्षस महिषासुर पर विजय प्राप्त करने के रूप में दुर्गा पूजा का त्यौहार मनाया जाता है। यही कारण है कि दुर्गा पूजा के उत्सव को बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना गया है। दुर्गा पूजा से जुड़ीं एक अन्य मान्यता ये भी है कि दुर्गा पूजा के दौरान स्वयं माता दुर्गा कैलाश पर्वत को छोड़कर धरती पर अपने भक्तों के बीच निवास के लिए आती हैं। अपने भक्तों पर कृपा बरसाने के लिए देवी लक्ष्मी, देवी सरस्वती, कार्तिकेय और गणेश के साथ माता दुर्गा धरती पर प्रकट होती हैं।
दुर्गा पूजा से जुड़ी मान्यताएं
दुर्गा पूजा के दौरान उत्तर भारत में नवरात्र के साथ ही दशमी के दिन रावण पर भगवान श्री राम की विजय का उत्सव विजयदशमी मनाया जाता है| उत्तर भारत में इन दिनों में रामलीला के मंचन किये जाते हैं| तो वहीं पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा आदि राज्यों का दृश्य अलग होता है| दरअसल यहां भी इस उत्सव को बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में ही मनाया जाता है| मान्यता है कि राक्षस महिषासुर का वध करने के कारण ही इसे विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है| जिसका उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में मिलता है जो कुछ इस प्रकार है-
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