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🌹आज सत्संग के माध्यम से आदरणीय नितिन जी अध्याय तेरह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में श्लोक 26 पर पुन: प्रकाश डालते हुए समझा रहे हैं कि प्रभु के दिव्य ज्ञान का बारम्बार श्रवण मनुष्य के चित्त को शुद्ध कर उसे भगवत प्राप्ति करवा देता है।
🌹प्रभु ने अर्जुन को बताया कि सृष्टि में सब जड़-चेतन(सजीव-निर्जीव)जो भी है,सब कुछ क्षेत्र (प्रकृति)और क्षेत्रज्ञ(आत्मा-परमात्मा)के संयोग से ही है।निर्जीव पदार्थ में आत्मा तो नहीं परन्तु परमात्मा का वास होता है,प्रभु सृष्टि के कण-कण में विद्यमान हैं,इसलिए हम प्रभु की सत्ता के दर्शन हर जगह कर सकते हैं,प्रभु के बिना सृष्टि की किसी भी वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं।
🌹प्रभु ने आगे बताया कि वास्तव में द्रष्टा कौन(चक्षु रखने वाला)है?केवल वही जो प्रभु की हर संरचना में प्रभु के दर्शन करता है और सभी जीवों में आत्मा के साथ परमात्मा को स्थित देखता है और साथ में इस ज्ञान से अवगत है कि आत्मा-परमात्मा दोनों अविनाशी और देह नश्वर है,ऐसा ज्ञान रखने वाला प्रभु को पाकर संसार से मुक्त हो जाता है।
🌹आगे प्रभु ने बताया कि जो सर्वत्र प्रभु को ही देखता है,कभी किसी से भेद,द्वेष-द्वंद्व नहीं करता,वह दिव्य ज्ञान में स्थित है,ऐसा प्रबुद्ध कभी भी अपने मन से विचलित नहीं होता और परम गति को पाता है।
🌹आगे प्रभु सच्चे द्रष्टा का एक और गुण बताते हैं कि जो यह समझता है कि सर्व कर्म केवल प्रकृति यानि देह,मन-बुद्धि अहंकार द्वारा किए जा रहे हैं और आत्मा कर्तापन के भाव से मुक्त रहता है तो वही वास्तव में दृष्टि रखने वाला है और मुझे प्राप्त कर लेता है।
🌹आगे प्रभु बताते हैं कि एक प्रबुद्ध वही है जो हरेक विलग-विलग जीव को एक ईश्वर में ही देखता है और सभी को प्रभु से ही उत्पन्न हुआ मान सबको प्रेम की निगाह से देखता है,क्योंकि उसको बोध हो जाता है कि बेशक सबकी देह भिन्न हो सकती है पर सबके भीतर चेतन तत्व एक ही है,ऐसा ज्ञानी ब्रह्म को पा लेता है।
🌹परमात्मा अविनाशी,अनादि,निर्गुण होते हुए, सब जीवों की देह में रहते हुए भी न कोई कर्म करते हैं और न ही किसी से लिप्त होते हैं।प्रभु तो बस जीव के कर्मों का हिसाब रख वक्त आने पर कर्मानुसार फल जीव को प्रदत्त करते हैं,इसलिए जीव को सतर्कता से जीवनयापन करना चाहिए।
🌹जैसे आकाश सूक्ष्म होने के कारण सर्वत्र व्याप्त होकर भी चांद,तारे,सूर्य,ग्रहों-नक्षत्रों इत्यादि के साथ लिप्त नहीं होता,वैसे ही आत्मा भी देह में सर्वत्र होने के कारण लिप्त नहीं होती प्रभु की अंशावतार होने के कारण। इसलिए हमें देहाभिमान व कर्तापन के भाव से मुक्त रहना चाहिए।
🌹फिर प्रभु ने आत्मा की शक्ति को सूर्य के उदाहरण से समझाया कि जैसे अकेला सूर्य सारे जगत को प्रकाशित करता है,वैसे ही देहधारियों के भीतर स्थित आत्मा सारे शरीर को प्रकाशित करती है और आत्मा प्रभु का अंश है।
🌹इस तरह शाश्वत-सच्चे द्रष्टा ज्ञान चक्षुओं से जब क्षेत्र(देह)-क्षेत्रज्ञ (आत्मा-परमात्मा) के भेद को और भौतिक प्रकृति से मोक्ष के उपाय को यानि कैसे हमें अपने मानुष तन का उपयोग दिव्य ज्ञान अर्जन करके,अपने ऊपर सब लागू करके प्रभु प्राप्ति के लिए करना है?जो ये सब जान और कर गया,वह परब्रह्म को निश्चित ही पा लेता है।
हरि-हरि बोल-2
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गोलोक एक्सप्रेस (आध्यात्मिक गतिविधियों के लिए एक ऑनलाइन मंच) के सुबह के सत्संग में
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Негізгі бет Ep.-214_अध्याय 13 - क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ ( श्लोक 27 से )
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