| Harir Ni Vav | Gujrat | सुल्तान महमूद बेगड़ा के शाही हरम की “ख्वाजा सारा” बाई हरीर की बाव। @Gyanvikvlogs
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सुल्तान महमूद बेगड़ा के शासनकाल (सन 1453-1511) में सुल्तान के हरम की देख रेख करने वाली बाई हरीर सुल्तानी ने इस बावड़ी का निर्माण करवाया था। इस्लामिक शासन में अमूमन शाही हरम की देख रेख का काम ‘ख़्वाजा सरा’ यानी किन्नरों को सौंपा जाता था इसलिए माना जाता है कि बाई हरीर भी किन्नर ही रही होगी।
इस परिसर में एक मस्जिद, एक मक़बरा और वाव या बावड़ी है। ये बावड़ी पांच मंज़िला है और इसकी गहराई 32 फ़ुट है। ये बावड़ी बालुआ-पत्थर की बनी है और इसके निर्माण में सोलंकी वास्तुकला का काफ़ी प्रभाव है। बावड़ी की आठ कोने वाली मध्य शाफ़्ट अपने आप में काफ़ी गहरी है। सतह पर बावड़ी 190 फुट लंबी और 40 फुट चौड़ी है । बावड़ी पूर्व-पश्चिम अक्ष रेखा पर आधारित है और इसका प्रवेश पूर्व से है और शाफ़्ट पश्चिम दिशा की तरफ़ है।
वे न सिर्फ़ पानी का स्रोत थीं बल्कि स्थानीय लोगों और मेहमानों की आरामगाह और मिलने जुलने की जगह भी हुआ करती थीं। दादा हरीर नी वाव की सीढ़ियां एक स्तर से दूसरे स्तर तक जाती हैं और हर स्तर पर गलियारे, गैलरी, बरामदे और मंडप हैं जिनका इस्तेमाल मेहमान आराम करने या सभा करने के लिए कर सकते थे। बावड़ी की शाफ़्ट में भी घुमाओदार सीड़ियां हैं जो अलग अलग स्तर पर खुलती हैं।
बावड़ी के एकदम सामने दादा हरीर नी मस्जिद और बाई हरीर सुल्तानी का मक़बरा भी है। बावड़ी और मस्जिद उन्होंने ही बनवाई थी। मक़बरा और मस्जिद हालांकि बहुत बड़े नहीं हैं लेकिन इनकी बनावट बहुत सुंदर है। दोनों के गुम्बद इस्लामिक वास्तुकला के नमूने हैं, जो सुंदर नक़्क़ाशी वाली मीनारों पर खड़े हैं। इनमें झरोखे और छतें भी हैं। यहां आम हिन्दू प्रतीक चिंह भी दिखाई देते हैं लेकिन इस्लामी परम्पराओं को देखते हुए इनमें इंसानों और जानवरों की आकृतियां नहीं बनाई गई है। हालांकि हाथी जैसे पशुओं का कुछ चित्रण मिलता है। ये चित्रण बावड़ी के ऊपरी स्तरों पर ही दिखाई देता है ।
स्टेप्स टू वॉटर: द एंशियंट स्टेपवेल्स ऑफ़ इंडिया’ किताब में कला इतिहासकार मिलो बीच और मॉर्ना लिविग्स्टोन बताते हैं कि महमूद बेगड़ा के शासनकाल में सन 1498 और सन 1503 के बीच चार बावड़ियां बनवाईं गईं थीं। इनमें हिंदु और इस्लामिक वास्तुशिल्प और आदर्शों का प्रभावशाली मिश्रण दिखाई दोता है। इन बावड़ियों के नाम हैं दादा हरीर नी वाव, अडालज नी वाव, अंबरपुर वाव और सांप वाव। कला इतिहासकारों का कहना है कि इनमें से दादा हरीर अपने गुंबदनुमा मंडपों की वजह से इस्लामिक वास्तुकला के सबसे ज़्यादा नज़दीक है।
बाव़ड़ी परिसर में तीन शिलालेख हैं: एक बावड़ी की दीवार पर संस्कृत में है और दो मस्जिद की दीवारों पर हैं, जो अरबी भाषा में हैं। इनसे ही हमें बावड़ी के निर्माण के बारे में ज़्यादातर जानकारियां मिलती हैं। शिला-लेख में नाम, तारीख़ और उन लोगों के ओहदों के बारे में भी पता चलता है जो निर्माण से जुड़े हुए थे। इसके अलावा इससे उस समय के सामाजिकऔर सांस्कृतिक तानेबाने तथा राजनीतिक हालात की भी जानकारी मिलती है।
पुणे में दक्कन कॉलेज के प्रो. एम.ए. चुग़ताई ने अहमदाबाद शहर के कई इस्लामिक स्मारकों के शिलालेखों का अर्थ खोजा है और उनका अनुवाद भी किया है। इनमें दादा हरीर नी वाव के अभिलेख भी शामिल हैं। प्रो. चुग़ताई अहमदाबाद में मिले शिलालेखों के बारे में एक दिलचस्प जानकारी देते है। वह यह कि इन अभिलेखों में सन 1035 से लेकर सन 1785 तक की अवधि दर्ज है। प्रो. चुग़ताई के अनुसार भारत में किसी भी ऐतिहासिक शहर में मिले शिलालेखों में इतनी लंबी काल-अवधि दर्ज नहीं है।
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