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एक समय की बात है । एक विश्वविद्यालय में राजनीति विभाग के एक प्रतिष्ठित अध्यापक थे , जिनका नाम द्रोणाचार्य था । पद - क्रम के अनुसार वे ' रीडर ' कहलाते थे । ' रीडर ' उस अध्यापक को कहते थे , जिसे कक्षा में पढ़ाना नहीं आता था और वह पाठ्य-पुस्तक या कुंजी कक्षा में पढ़कर काम चला लेता था ।आचार्य द्रोणाचार्य के दो शिष्य थे । एक का नाम अर्जुनदास था और दूसरे का एकलव्यदास । अर्जुनदास एक धनी बाप का बेटा था , जिनका समाज में प्रभाव था और राजदरबार में भी उनका मान होता था । आचार्य रोज़ अर्जुनदास के घर जाते थे और अर्जुनदास भी रोज़ उनके घर आता था । उनका साथ इतना घना था कि कोई यदि आँखें बन्द करके आचार्य प्रवर की कल्पना करता , तो आचार्य का शरीर कल्पना में आते-आते उसमें एक दुम निकल आती और दुम के छोर पर अर्जुनदास का चेहरा बन जाता । एकलव्य ग़रीब आदमी का लड़का था , इसलिए उसे आचार्य का साक्षात्कार बहुत कम होता था । पर गुरु के प्रति उसकी भक्ती थी । उसने अपने कमरे में द्रोणाचार्य का एक चित्र टाँग रखा था और उनकी लिखी हुई एक कुंजी सिरहाने रखकर सोता था । दोनों शिष्य एम . ए . की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे । ( एम . ए . एक ऐसी परीक्षा थी जिसे पढ़ने के बाद तीन वर्ष का बेकारी का कोर्स पढ़ना पड़ता था।-सं. ) अर्जुन जानता था कि विद्या पढ़ने से नहीं , बल्कि गुरु-कृपा से प्राप्त होती है । वह निरन्तर गुरु की सेवा में रहता था । वह आचार्य के घर में किराना , कपड़ा , सब्जी आदि पहुँचाता था । त्योहार पर आचार्य के पाँच बच्चों को बाजार ले जाता और उन्हें मिठाई , कपड़े , खिलौने आदि खरीद देता । वह आचार्या को सिनेमा - नाटक दिखाता था और अन्य अध्यापकों की पत्नियों की कलंक - कथाएँ गढ़कर , उन्हें सुनाकर उनका मनोरंजन करता था । वह आचार्य के कुशल - क्षेम पर ध्यान देता था । रात को उनके सामने अन्य आचार्यों की निन्दा करता था , जिससे उनकी आत्मा का उत्थान होता था । उधर एकलव्य गुरु सेवा से विमुख होकर रात-दिन अध्ययन में लगा रहता था । एक दिन आचार्य और अर्जुन में इस प्रकार संवाद हुआ : " आचार्यवर , मैं आपके घर में किराना , कपड़ा , सब्जी आदि पहुँचाता हूँ कि नहीं ? " " हाँ वत्स , पहुँचाते हो । " " आचार्या को सिनेमा - नाटक कौन दिखाता है ? बच्चों को मिठाई , खिलौने और कपड़े कौन खरीद देता है ? " तू ही , बेटा । तू ही यह सब करता है । " “ क्या कोई दूसरा शिष्य है , जो आपके मुँह पर आपकी प्रशंसा मुझसे अधिक करके आपके मन को प्रसन्न करता हो ? " " नहीं , कोई नहीं । " " क्या कोई ऐसा अध्यापक बचा है , जिसकी निन्दा न करके मैंने आपके दुखाया हो ? " " नहीं , कोई नहीं बचा , वत्स । " " क्या यह सत्य नहीं कि आपके रीडर बनने में मेरे पिताजी का बड़ा हाथ है ? " " यह सर्वथा सत्य है । " " आगे विभागाध्यक्ष बनने के लिए आप किसकी सहायता लेंगे ? " " निःसन्देह तेरे पिता की । " " क्या एकलव्य ने आपकी सेवा की है ? " " बिलकुल नहीं ।
Негізгі бет Ойын-сауық एकलव्य ने गुरु को अंगूठा दिखाया हरिशंकर परसाई की मशहूर कहानी | narrated by Ravi mohan.
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