Channel- Sunil Batta Films
Documentary- History of Lucknow Ki Patangbazi & Ustad Patangbaaz
Produced & Directed by Sunil Batta, Voice- Navneet Mishra, Script- Yogesh Praveen, Camera-Chandreshwar Singh Shanti, Production- Dhruv Prakesh, Camera Asst.- Subhash Shukla.
Synopsis of the Film-
‘‘दिल्ली की चंग लखनऊ की पतंग’’
कहा जाता है कि पतंग जो कि एक हजार बरस पहले से चीन में मन बहलाव का साधन रही है धीरे-धीरे हिन्दुस्तान पहुंची लेकिन कुछ विद्वानों का मानना है कि भारत में आकाशदीप परम्परा से पतंग का जन्म हुआ है। मध्यकाल के कवियों ने तरह-तरह से पतंग की बात कविताओं में कही है, लेकिन तब तक पतंग को ये नाम नहीं मिला था। इसे ‘गुडी’ या ‘चंग’ के नाम से जाना जाता था।
दिल्ली की ‘चंग’ शाहआलम के समय में लखनऊ आकर पतंग बन गयी। लेकिन यह सच है कि पतंग को नाम के साथ-साथ इसके नये आकार तक पहुंचने और इसको शानों शौकत का रूतबा देने का काम लखनऊ के हाथों हुआ है। जो पतंगे तुक्कल, गुड्डी, आदम, मक्कड़, नानवी और अजदहा की सूरत में थीं वो लखनऊ आकर पौनतावा, कनकव्वा ही नहीं बनीं, और भी तमाम रूप से निखर उठीं। आजकल की अच्छी तथा सस्ती मद्दी पतंगों के नाम हैं, तावा ढाया, तीन, चार, पौनताई बनचों और पैसुल्वी।
नवाब आसफुद्दौला के अपने शासनकाल में पतंग की परवरिश खूब हुयी। नवाब आसफुद्दौला अपने शीशमहल की छत से पतंग उड़ाया करते थे लेकिन पतंग लड़ाने का सिलसिला सन् 1800 से नवाब सआदत अली खां के अहद से शुरू हुआ और फिर धीरे-धीरे-तमाम खेलों और बाजियों में पतंगबाजी का सिक्का कायम हो गया यहां तक कि लखनऊ पतंगबाजी का गढ़ बन गया। उस युग में एक कनकव्वे से नौ पेंच काटने वाले को ‘नौशेरा’ की उपाधि से विभूषित किया जाता था। जाने आलम के समय में तो पतंग अपने पूरे शबाब पर पहुंच गयी। यहां तक कि पतंगसाजी लखनऊ का एक उद्योग बन गया।
समय की माँग के अनुसार मांझे, रील और तार का काम होने लगा जिन पर कांच की किरचें और अण्डे की जर्दी चढ़ायी जाने लगी। नवाब वाजिद अली शाह मछली वाली बारादरी की छत से पेंच लड़ाया करते थे। नवाबी की पतंगे दुल्हन की तरह सजी सजायी रहती थी जिनमें अक्सर सोने चांदी के सच्चे तारों की झलझली बंधा रहती थी जिसकी कीमत उस जमाने में पांच रूपये होती थी। ये पतंगे जिसकी छत पर कट गिरती थीं उसके घर उस दिन पुलाव पकता था। यही नहीं प्रेमी लोग पतंगों पर खत लिखकर भी अपनी प्रियताओं के घर तक पहुँच दिया करते थे।
सन् 1857 में लखनऊ रेजीडेंसी के ब्रिटिश अधिकारियों ने एक पतंग के द्वारा ही अपना गुप्त संदेश किला मच्छी भवन तक पहुंचाने में सफलता पायी थी जिसके आधार पर मच्छी भवन को बारूद से उड़ा दिया गया था। इसी तरह ब्रिटिश शासनकाल में जब साइमन कमीशन लखनऊ आया तो उसकी बैठक कैसरबाग में तोप वाली कोठी के पास हुई । उस समय लाख पाबंदियों के बावजूद स्वतंत्रता सेनानियों ने गोलागंज से काली पतंगों पर ‘साइमन गो बैक’ का नारा लिखकर ऐन मौके पर ढहाकर पहुंचा दिया था।
लखनऊ में दीपावली के दूसरे दिन होने वाला जमघट त्योहार पतंग त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। इस दिन पतंगों से लखनऊ का आसमान एक खुशरंग गलीचा बन जाता है। सभी धर्म और वर्ग के लोग समान दिलचस्पी के साथ पतंगे उड़ाते हैं, बदे लड़ाते हैं बाजियां लगाते हैं। सद्भावना की ये भूमिका पतंग ने अच्छी तरह निभायी है। राजस्थान और गुजरात में मकर संक्राति को ही पतंग उड़ाने का पर्व है। जिस तरह लाहौर में बसंत के दिन पतंग उड़ायी जाती है।
लखनऊ में पतंग आज भी एक अच्छा खासा उद्योग है। खास लखनऊ में पतंगों के बड़े-बड़े गोदाम और दुकने हैं। ये पतंगे घरों में सैकड़ों के भाव में बनाती हैं, कांप और ठड्डे के लिए सुन्देरबन के बांसो की कटी तीलियां कलकत्ते से आती हैं। चर्खी बनाने में भी लखनऊ वाले कहीं पीछे नहीं हैं, इनकी चर्खियां अपनी सजधज के कारण दूर से पहचान ली जाती हैं। इसका निर्माण आम और शीशम की लकड़ी तथा बांस की शहतीरों से होता है।
लखनऊ में तकिया कुतुब आज़म (वजीरबाग के पास) बारवची टोला (मेडिकल कालेज के निकट) और डालीगंज में डोर सूतने वाले अड्डे पर कारीगर अपना काम करते हुए आज भी मिल जायेंगे। सादी रील पर कांच का सुरमा, चावल का मांड, अण्डे की सफेदी और आरारोट पहना कर धार तैयार की जाती है, मांझा बनाया जाता है।
#PatangBazi
#पतंगबाजी
#KiteFlying
#KiteFighting
#KiteRunner
#MurgaBazi
Негізгі бет लखनऊ में पतंग और पतंगसाजी आज एक अच्छा खासा उद्योग है। Patangbazi & Ustad Patangbaaz। Lucknow।
Пікірлер: 111