एक
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निरुपमा दत्त मैं बहुत उदास हूं
सच-सच बतलाना नीरू
इतनी बड़ी दुनिया के
इतने सारे शहर छोड़ कर
तुम वापिस चंडीगढ़ क्यों लौट जाना चाहती थी
चंडीगढ़ जैसे हसीन शहर में
अपने उन दुखों का क्या करती हो नीरू
जो तुमने दिल्ली जैसे क्रूर शहर से ईजाद किए थे
लंबे समय के बाद
तुम्हें खत लिखते हुए
सोच रहा हूं
तुमने उस बरसाती का क्या किया होगा
जिसने हमें भीगने से बचाए रखा
नीरू
क्या इतने बरस बाद भी
तुम मुझे उसी हमकलम दोस्त की तरह नहीं देखती
जो तुम्हारे सारे दुखों को कम करने के लिए
लड़ सकता है
अब भी
वह शहर कैसा है नीरू
जहां हमें कुछ बरस और
साथ रहना था
बिना किसी शर्त के
यहां हमारे हिस्से की
बहुत सी हिचकियां पालथी मारे बैठी हैं
हमारे साथ चलने को
यहां से आधी रात गए
एक अल्हड़ जवान लड़का
एक शोख नटखट लड़की से मिलता है
जहां किसी पेड़ पर एक लड़की ने लिखा है
‘मैं तुम्हें उस तरह नहीं जाने दूंगी
जैसे तुम चले जाना चाहते हो’
और कौन जाने वह लड़का चला गया हो
इतने बड़े शहर में
पेडों पर किसी का लिखा
कौन पढ़ता है नीरू
पढ़ भी ले तो भी
किससे कहेगा जा कर कि देखो
बरसाती के पेड़ के नीचे वहां
तुम्हारे लिए कोई संदेश छोड़ गया है
इस शहर से कहीं और जाने का
बिल्कुल न कहूंगा
इसी शहर के
अंधाधुध ट्रैफिक की लाईन में खड़ी
तुम्हारी गाड़ी की जलती-बुझती बत्ती देख कर
पूछना चाहता हूं
‘इतनी ठंड में कहाँ जा रही हो नीरू
फिर लौट आता हूं
तुम्हारी आंखें कहती हैं
‘कहीं नहीं बस थोड़ा मन बदलने निकली हूं’
तुम्हारी तरह कुछ दिनों से मैं भी
बहुत उदास हूं
हरप्रीत कौर
(कुमार विकल को पढ़ते हुए निरूपमा दत्त के लिए)
दो
एक दिन
जब नींद में होगी तुम
मैं तुम्हारे सब उधड़े दिन सिल दूंगा
तुम आओगी
तो
कितने शहर दिखाऊंगा तुम्हें
हर शहर में थोडा रूकेंगे
बस लाल बत्ती होने तक
एक दूसरे के पैरों में
चिकोटियां काटते हुए
कौन जाने इस अंधे सफर में
हमारे पैर किस क्षण सो जाएं...हरप्रीत कौर की कविता सुनें वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक संजीव पालीवाल से.
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