महर्षि मेँहीँ धाम !
मणियारपुर का मनोरम पहाड़ी प्रान्तर !
महर्षि शाही स्वामीजी महाराज के पुनीत संकल्पों का कर्म-क्षेत्र ! मानव मात्र के आत्म-कल्याण की तपोभूमि है मणियारपुर का ‘महर्षि मेँहीं धाम' ! प्रकृति के एकांतिक सुरम्य आंचल में आश्रम बनानेकी दीर्घ परम्परा का निर्वहन यहांँ भी हुआ है । श्रीजाबालदर्शनोपनिषद् (सामवेद का, खण्ड-5) में एतदर्थ निर्देश मिलता है -
"पर्वताग्रे नदीतीरे बिल्वमूले वनेऽथवा ।
मनोरमे शुचौ देशे मठं कृत्वा समाहितः ।।"
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रामचरित मानस में भगवान श्रीरामजी बाल्मीकिजी के आश्रम की प्राकृतिक सुषमा देखकर मुदित हो गये । श्री वाल्मीकि मुनि का निवास स्थान आश्रम निर्माण की पृष्ठभूमि के लिये एक आदर्श नमूना माना जा सकता है-
" देखत वन सर शैल सुहाए, वाल्मीकि आश्रम प्रभु आए, रामदीख मुनिवास सुहावन, सुंदर गिरि कानन जल पावन। सरनि सरोज (विटप वन) फूले, गुंजत मंजु मधुप रस भूले। खगमृग विपुल कोलाहल करहीं, विरहित वैर मुदित मन चरहीं "। संतमत के संस्थापक आचार्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने ‘महर्षि मेँहीँ धाम’ तथा अन्य आश्रमों के निर्माण में इन्हीं परम्पराओं का निर्वाह किया है ।
'महर्षि मेँहीँ धाम' बिहार राज्य के बाँका जिले के बौंसी प्रखंड में है । यह बिहार और झारखंड का सीमांत क्षेत्र है । यह मनोरम धाम बौंसी से लक्ष्मीपुर डैम तक जानेवाली सड़क पर लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है । इसके आस-पास में पर्वत और वन हैं । जाड़े की ढलती शाम में हंसडीहा (दुमका) और मोहनपुर (देवघर) की पर्वतमालाओं की चोटियों पर धुँध की चादर फैली रहती है । दूर-दूर तक ऊँची-नीची पहाड़ी भूमि, कहीं-कहीं फसल की हरियाली, लाल मिट्टी, चुभते कंकड़, बेतरतीब पहाड़ी पेड़-पौधे,बड़े-छोटे ताड़ और खजूर के पेड़ और तन-मन को तरोताजा करती सरसराती हवा !
महर्षि मेँहीँ धाम के पूरब उत्तर दिशा में विशाल हरना बांध और उसकी बाँहों में सिमटा बड़ा-सा जलाशय ! रंग-बिरंगे पक्षियों के कलरव, ताड़ की फुनगियां पर सूरज का पीला प्रकाश और जलाशय में हहास भरती चिड़ियों के झुंड ! प्रकृति की नयनाभिराम प्रस्तुति ! प्रकृति का यह अद्भुत दृश्य- शांत, एकांत और नैसर्गिक सौंदर्य ; मानव- मन को सहज ही अन्तर्मुखी बना देते हैं।
‘महर्षि मेँहीँ धाम’ की स्थापना के मूल में सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परहंसजी महाराज की महती कृपा परिलक्षित होती है। संतमत-सत्संग के प्रचार के लिए इनका पदार्पण अक्सर इस क्षेत्र में होता था। यहां की जीवनदायिनी जलवायु, नैसर्गिक सौंदर्य, रमणीय वातावरण से इनके अंतस्थल में आश्रम निर्माण की इच्छा जगी। संत की मौज के आगे प्रकृति और उसके चराचर जीव सभी विनयावनत हो जाते हैं। भक्तों के अन्दर सत्प्रेरणा उत्पन्न हुई और उनके सद्प्रयास से 19 नवम्बर 1962 ई० को दरघट्टी, जिला-बाॅका, के स्व. महादेव पूर्वे और स्व. हरि पूर्वे ने 8 एकड़ 88 डी० जमीन दानस्वरूप दी थी । स्थानीय सत्संगियों ने आपसी सहयोग से तब तीन कमरों का छोटा सत्संग मंदिर बनाया था जिसमें सद्गुरु महाराज का निवास भी था। आज उसी स्थल पर विशाल सत्संग प्रशाल है। संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ ने 1980 ई० में इसे विशेष रूप देने के उद्देश्य से सत्संग मंदिर का शिलान्यास चाँदी की करनी से किया था और इस स्थान को सेनिटोरियम (स्वाथ्यवर्द्धक) की संज्ञा दी थी अर्थात् शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में स्वास्थ्यवर्द्धन । आज उनकी कृपा से ‘महर्षि मेँहीँ धाम’ में लगभग 26 एकड़ जमीन है। गुरुदेव की कृपा से आज भी इस आश्रम के व्यवस्थापक स्वामी भक्तानंद जी महाराज हैं।
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