जनश्रुति है कि केसर कालमी घोड़ी देवल चारणी की गायों की रखवाली करती थी और पाबूजी राठौड़ ने देवल चारनी को उसकी गायों की रक्षा करने का वचन दिया तब देवी देवल चारणी ने उन्हें घोड़ी दे दी।
पाबूजी राठौड़ के तीन फेरे
फिर जब पाबूजी राठौड़ मंडप में पहुंचे और फेरें शुरू हुए किंतु जीस समय तीसरा फेरा लिया। ठीक उसी समय केसर घोड़ी हिन-हिनाने लगी। देवल चारणी पर संकट आ गया था। देवल ने जींदराव को केसर कालवी घोड़ी देने से मना कर दिया था। इसी नाराज़गी के कारण आज मौका देखकर उसने देवल की गायों को घेर लिया था। और उनको अपने साथ ले गया।
तब पाबूजी राठौड़ ने बाकी बचे फेरे को वहीं छोड़ दिया, और गठजोड़ को खोल दिया। गायों की रक्षा के लिए निकल पड़े। पोलमदें ने अपनी अश्रुपूरित आँखों से पाबूजी की तरफ देखा। लेकिन पाबूजी राठौड़ को अपने कर्तव्य की पुकार और वचन को निभाना था। और वहाँ से अपनी घोड़ी को ले कर निकल पड़े।
पाबूजी राठौड़ और जींदराव खींची का युद्ध
जब जींदराव का पीछा किया तो देचू गांव में पाबूजी राठौड़ और जींदराव खींची के बीच युद्ध हुआ और गायों को बचा लिया। लेकिन इस युद्ध में पाबूजी राठौड़ और उनके बड़े भाई बुडोजी दोनों शहीद हो गए। इस समय पाबूजी राठौड़ की उम्र 37 वर्ष थी।
पाबूजी राठौड़ शेष फेरे स्वर्ग में
इधर राजकुमारी पोलमदें हाथ में नारियल लेकर अपने स्वर्गीय पति के साथ शेष फेरे पूरे करने के लिए अग्नि स्नान करके स्वर्ग पलायन कर गई और आज भी कहा जाता है। कि पाबूजी ने शेष चार फेरे स्वर्ग में लिए। इस घटना के बाद आज भी राजस्थान के लोगों में ये मान्यता है। कि विवाह में तीन फेरे तो पाबूजी ने ले लिये थे। इसलिए बाकी चार फेरे अब विवाह में लिए जाते हैं।
यदि किसी पशुओं पर संकट आता है। तो पाबूजी महाराज का नाम लेते ही वो आज भी पशुओं की रक्षा करने के लिए आ जाते हैं। जोधपुर में कोलू में स्थित पाबूजी राठौड़ के मुख्य मंदिर में हर वर्ष चैत्र मास की अमावस्या को उनका मेला लगता है।
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