जय गुरुदेव
परम तत्व क्या है ? यह परमतत्व कैसे प्राप्तकरें, कैसे जानें ?
इस प्रश्न का , कि परम तत्व क्या है ? उत्तर यह है कि इसे कहना, बताना कठिन ही है ।
सूरदास जी कहते हैं कि "अविगत गति कछु कहत न आवै "। वे कहते हैं कि अज्ञेय तत्व गूंगे के गुड़ की तरह है; गूंगा गुड़ के मधुर का आनंद तो लेता है पर इस मधुर रस के आनंद का वर्णन नहीं कर सकता।ठीक कुछ ऐसे ही इस परम तत्व का, जिसे ब्रह्म भी कहा गया है, इस का बोध होने से जो ब्रह्मानंद होता है उसका वर्णन मनुष्य अपनी वाणी से नहीं कर सकता।
दूसरी बात जो समान महत्वपूर्ण है वह यह है कि , यह परमआत्मतत्व "प्राप्त करने" की चीज नहीं है , क्योंकि व्यक्ति की जीवआत्मा, परमआत्मा का अंश होने से व्यक्ति परम आत्म तत्व का अंश तो पहले से है जरूरत केवल उस तत्व को या कहें कि अपने मूल स्वरूप को समझने मात्र की है ।इसलिए परमतत्व को खोजने कहीं बाहर नहीं जाना है।
★इस परम तत्व का केवल आत्म "बोध" होता है इंद्रियों के माध्यम से "ज्ञान" जो ज्ञान होता है वह बोध नहीं होता। यहाँ "बोध" realisation और इन्द्रिय सापेक्ष प्राप्त "ज्ञान" conceptual knowledge में अंतर को हमें समझना होगा।
व्यक्ति अर्थात जीवात्मा जब स्वयं परमात्मा का अंश है-ईस्वर अंश जीव अविनाशी-जैसा कि गोस्वामी तुलसी दास जी कहते हैं, फिर भी व्यक्ति को अपने परमात्म तत्व होने का बोध इसलिए नहीं होता क्योंकि वह पञ्च इंद्रियों से प्राप्त सुख दुख के भोग में लगा रहता है।
इस प्रसंग को उपरोक्त मुण्डक उपनिषद में वृक्ष की दो शाखाओं पर बैठे पक्षी के एक उदाहरण से समझाया गया है ।एक पक्षी तो है जीवात्मा( जीव या मनुष्य ) और दूसरा पक्षी है परमात्मा । मुण्डक उपनिषद के इसी कथन को मैंने इस चित्र के माध्यम से दर्शाया है।
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◆चूंकि आत्मा भी परमात्मा का अंश है- ईश्वर अंश जीव अविनाशी-इस लिए परम तत्व का बोध का सर्वोत्तम तरीका अपने आत्म स्वरूप का अनुसंधान करना है इसे ही "स्व स्वरूप अनुसंधान" कहा गया है।
★ फिर से देखते हैं कि क्या है यह परम तत्व ? तो यह बता पाना सम्भव नहीं हो पाता है क्योंकि इस की देहली पर से वाणी और मन भी जाकर लौट आते हैं जैसा कि तैत्तरीय उपनिषद के नवम अनुवाक के आरम्भ में कहा गया है:
"यतो वाचो निर्वतंते अप्राप्य मनसा सह…"
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि फिर कैसे, किस माध्यम से उस परम तत्व का बोध हो?
इस सम्बन्ध में एक अन्य उपनिषद क्या कहता है,आइए देखते हैं:
जिस परमआत्म तत्व के बोध हो जाने पर सब कुछ स्वतः जाना हुआ हो जाता है उस आत्म तत्व को अलग से नहीं जाना जा सकता।क्योंकि उससे परे कुछ नहीं है।
इसी लिए बृहत आरण्यक उपनिषद २/४ में कहा गया है:
★"येनेदं सर्वं विजानाति, तं केन विजानीयात?"
अर्थात: जिस परमात्मा से सब कुछ जाना जाता है उसे किससे जानें ? अर्थात किसी से नहीं।
निष्कर्ष:
वस्तुतःप्रश्न में कथित परम तत्व का बोध हो जाने पर या कहें कि आत्म तत्त्व का बोध हो जाने पर ज्ञात ज्ञेय का बोध ही मिट जाता है।
इस स्थिति को छह दर्शनों में अलग अलग ढंग से बताया गया है जो अलग चर्चा का विषय है।
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