बात 31 अक्तूबर, 1984 की है. कोलकाता से दिल्ली जाने वाले इंडियन एयरलाइंस के बोइंग 737 विमान पर राजीव गाँधी, प्रणब मुखर्जी, शीला दीक्षित, उमाशंकर दीक्षित, बलराम जाखड़, लोकसभा के सेक्रेटरी जनरल सुभाष कश्यप और एबीएग़नी ख़ाँ चौधरी सवार थे. ढाई बजे राजीव गाँधी ने विमान के कॉकपिट से बाहर निकल कर घोषणा की कि इंदिरा गाँधी ने दम तोड़ दिया है. आरंभिक सदमे के थोड़ी देर बाद इस बात पर चर्चा होने लगी कि इसके आगे क्या किया जाए? प्रणब मुखर्जी ने अपनी बात रखते हुए कहा कि 'नेहरू के ज़माने से ऐसी परिस्थिति में अंतरिम प्रधानमंत्री को शपथ दिलाए जाने की परंपरा रही है. नेहरू के देहावसान के बाद कैबिनेट में सबसे वरिष्ठ मंत्री गुलज़ारी लाल नंदा को अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में चुना गया था.' जाने माने पत्रकार रशीद किदवाई अपनी किताब '24 अकबर रोड' में लिखते हैं- एक ब्यौरा ये है कि इंदिरा गाँधी की मौत से दुखी हो कर प्रणब मुखर्जी विमान के टॉयलेट में जा कर रोने लगे. उनकी आँखें लाल हो गईं, इसलिए वो विमान के पिछले हिस्से में जा कर बैठ गए. लेकिन कांग्रेस में उनके विरोधियों ने उनके इस हावभाव को राजीव गाँधी के ख़िलाफ़ षडयंत्र करने के सबूत के तौर पर पेश किया. दूसरा ब्यौरा ये है कि जब राजीव गाँधी ने प्रधानमंत्री के निधन के बाद होने वाली प्रक्रिया के बारे में पूछा, तो प्रणब ने 'वरिष्ठता' पर कुछ ज़्यादा ही ज़ोर दिया, जिसका बाद में उनकी प्रधानमंत्री पद पर बैठने की इच्छा के तौर पर इस्तेमाल किया गया. हालाँकि इंदिरा गाँधी के प्रधान सचिव रहे पीसी एलेक्ज़ेंडर ने अपनी आत्मकथा 'थ्रू द कॉरिडोर्स ऑफ़ पावर: एन इनसाइडर्स स्टोरी' में साफ़ साफ़ लिखा कि जैसे ही राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने की बात आई, प्रणब पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उसका ज़ोरदार समर्थन किया. लेकिन तब तक नुक़सान हो चुका था. चुनाव जीतने के बाद जब राजीव गाँधी ने अपना मंत्रिमंडल बनाया, तो न उसमें और न ही कांग्रेस कार्यसमिति में प्रणब मुखर्जी को कोई जगह दी गई. उन्हें 1986 में पार्टी से बाहर जा कर एक अलग पार्टी राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस बनानी पड़ी. प्रणब मुखर्जी ने दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने की बस तब मिस की, जब सोनिया गाँधी ने ख़ुद प्रधानमंत्री का पद ठुकराने के बाद पार्टी में नंबर दो प्रणब मुखर्जी के स्थान पर राज्यसभा में कांग्रेस के नेता मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना. ये वही मनमोहन सिंह थे, जिनका इंदिरा गाँधी के शासनकाल में भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर के पद का नियुक्ति पत्र प्रणब मुखर्जी ने वित्त मंत्री के तौर पर साइन किया था. प्रणब मुखर्जी ने एक ज़माने में उनके अंडर काम करने वाले मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाए जाने का कभी सार्वजनिक तौर पर विरोध नहीं किया. उन्हें अपनी कुछ कमज़ोरियों का अहसास था. मसलन एक जगह उन्होंने कहा भी कि उन्होंने अपने राजनीतिक करियर का एक बहुत बड़ा हिस्सा राज्यसभा में बिताया था. हिंदी बोलने में उन्हें दिक़्क़त होती थी और अपने गृह राज्य में वो कांग्रेस को कभी जितवा नहीं पाए थे. बाद में उन्होंने अपने कुछ नज़दीकियों के साथ मज़ाक किया- प्रधानमंत्री तो आते जाते रहेंगे, लेकिन मैं हमेशा पीएम (प्रणब मुखर्जी) ही रहूँगा. प्रणब ने अपने लगभग 50 वर्षों के राजनीतिक जीवन में प्रधानमंत्री को छोड़ कर हर महत्वपूर्ण पद पर काम किया.
स्टोरी और आवाज़: रेहान फ़ज़ल
एडिटिंग/मिक्सिंग: मनीष जालुई/अजीत सारथी
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