मन्त्र: ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं नवनाथाय विद्महे, सर्वस्वरूपाय धीमहि,तन्नो अलख निरञ्जन प्रचोदयात्
वह इन्द्रियों का विषय नहीं , वह तो अगोचर है ! वह ऐसा है कि उसे हम न बस्ती कह सकते हैं और न ही शुन्य ! न यह कह सकते हैं की वह कुछ है और न यह की वह कुछ नहीं है ! वह भाव और अभाव, सत और असत दोनों से परे है ! वह तो आकाश मंडल में बोलने वाला बालक है , आकाश मंडल में बोलने वाला इसलिए कहा गया है क्यूंकि आकाशमंडल को शुन्य , आकाश या ब्रह्मरंध्र कहा गया है और यही ब्रह्म का निवास माना जाता है , वही पहुँचने पर ब्रह्म का साक्षात्कार हो सकता है ! बालक इसलिए कहा गया है क्यूंकि जिस प्रकार बालक पाप और पुण्य से रहता है ठीक उसकी प्रकार परमात्मा भी निर्लेप है !
न देखे जा सकने वाले परब्रम्ह को देखना चाहिए और देखकर उस पर विचार करना चाहिए ! जो आँखों से देखा नहीं जा सकता उसे चित्त में रखना चाहिए ! पाताल जो मूलाधार चक्र हैं वहाँ की गंगा अर्थात कुण्डलिनी शक्ति को ब्रम्हाण्ड ( सहस्त्रार ) में प्रेरित करना चाहिए , वहीँ पहुँच कर योगी साक्षात्कार करता है अर्थात अमृत पान करता है !
परब्रम्ह सहस्त्रार या ब्रम्हरन्ध्र में ही है , यही वह अलोप है ! तीनो लोको की रचना यहीं से हुई ! यह ब्रम्हाण्ड ब्रह्म का ही व्यक्त स्वरुप है , ब्रम्हरंध्र से ही उसने अपना सर्वाधिक पसारा किया है , ऐसा अक्षय परब्रहम जो सर्वदा हमारे साथ रहता है , उसी के कारण उसी को प्राप्त करने के लिए अनंत सिद्ध योग मार्ग में प्रवेश कर योगेश्वर हो जाते हैं !
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