आरती संग्रह औलिया ताजुद्दीन बाबा संपुर्ण आरती वाकी aarti tajudin baba waki sharif
arti singer-suresh watkar
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Hazrat Tajuddin Baba - हजरत बाबा ताजुद्दीन का जन्म नागपुर शहर से 15 कि.मी. दूर कामठी गांव में 27 जनवरी, 1861 को हुआ था। उनके पिता सैयद बद्रूद्दीन फौज में सूबेदार थे व उनकी माता मरियम वी मद्रासी पलटन के सूबेदार मेजर शेख मीरांसाहब की पुत्री थीं। वे जन्म के समय से ही असाधारण थे। बाबा के पुरखे अरबस्तान के बाशिन्दे थे। इन्हीं में से उनके वालिद काम काज के लिए कामठी आये व नौकरी मिलने पर कामठी में ही बस गये। बाबा जब एक वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहान्त हो गया था लेकिन 9 वर्ष की उम्र पूरी होते ही उनकी मां भी चल बसी। नानी ने ही इन्हें पाल पोसकर बड़ा किया व कामठी स्थित मदरसे में तालीम हेतु भेज दिया।
उन दिनों कामठी में हजरत अब्दुल्ला शाह नामक पहुंचे हुए फकीर रहते थे। एक दिन जब वे मदरसे में आये और उनकी नजर इस बालक पर पड़ी तो उन्होंने तालीम देने वाले अध्यापक से कहा-’तू इसे क्या पढ़ाता है, ये तो अव्वल (पूर्व जन्म) से ही सब कुछ सीखकर आया है। वे इतना कहकर शाह फकीर ने अपनी झोली से खुरमा निकाल कर आधा खुद चबाया और बचा हुआ बालक ताजुद्दीन के मुंह में रखकर कहा-कम खाओ, कम सोओ और कम बोलो व कुरान शरीफ पढ़ो। कहते हैं कि खुरमा खाते ही ताजुद्दीन में परिवर्तन आ गया, तीन दिनों तक उनकी आंखों से आंसू बहते रहे व उनकी दीन दुनिया ही बदल गई।
दुनिया की चीजों में उनकी दिलचस्पी खत्म सी हो गई। जब वे 18 वर्ष के थे तब कामठी में बहने वाली कन्हान नदी में (सन् 1879-80) बाढ़ आ गई, जिससे उनके घर को काफी क्षति पहुंची। सन् 1881 में उनके मामा ने तालीम पूरी होने पर उन्हें नागपुर की रेजीमेंट नं. 13 में भर्ती करवा दिया। फौज में तीन साल बाद उन्हें सागर जाना पड़ा। मद्रासी पलटन के डेरे में पहुंचकर उनकी भेंट वहीं वीरान क्षेत्र में तशरीफ फरमा रहे संत हजरत दाऊद से हुई और वहीं दिन में नौकरी के बाद पूरी रात उनके पास भजन-बंदगी में गुजारने लगे। जब यह बात उनकी नानी को पता लगी कि फौज की नौकरी से जवान नाती गायब रहने लगा है तो वे पता लगाने सागर पहुंची। जब उन्होंने देखा कि ताजुद्दीन खुदा की बंदगी में रातें गुजारता है तो उन्होंने चैन की सांस ली।
बाबा साहब ख़ुदा की याद में डूबने लगे। इन ही दिनों एक ऐसा वाक्या हुआ, जिसने बाबा साहब की जि़न्दगी के अगले दौर की बुनियाद डाली। बाबा साहब की ड्यूटी औज़ारों की देखरेख पर लगायी गयी थी। एक रात दो बजे बाबा साहब पहरा दे रहे थे, तो अंग्रेज कैप्टन अचानक मुआयने के लिए आ गया। मुआयने के बाद जब वापस होने लगा, कुछ दूरी पर एक मस्जिद में क्या देखता है कि जिस सिपाही को पहरा देते देख कर आया था, वो मस्जिद में नमाज़ अदा कर रहा है। उसे सख्त गुस्सा आया। वह वापिस लौटा। लेकिन क्या देखता है कि सिपाही (बाबा साहब) अपनी जगह पर मौजूद है। कैप्टन ने दोबारा मस्जिद में देखा और वही पाया।
दूसरे रोज उसने अपने बड़े अफसर के सामने बाबा साहब को तलब किया और कहा हमने तुमको रात दो दो जगह देखा है। हमको लगता है कि तुम ख़ुदा का कोई खास बन्दा है। यह बात सुनकर बाबा खफा हो गए।
एक दिन ऐसा आया कि बाबा ताजुद्दीन अपनी अल-मस्त हालत में अपने फौजी अफसर के सामने जा धमके व उनके हाथ में नौकरी से इस्तीफा सौंप दिया और तुरन्त फौजी अहाते से बाहर चले गये। फौज से तुरन्त उनके घर सूचना भेजी गई। नानी ने फिर एक बार सागर आकर देखा तो ताजुद्दीन गली-कूचों की खाक छानते नजर आये। नानी को लगा कि वे पागल हो गए हैं और वे उन्हें पुन: कामठी ले आयी। कामठी में उन्हें डाक्टरों, हकीमों को दिखाया लेकिन वे उस अवस्था को प्राप्त कर चुके थे जहां आत्मा और परमात्मा की एकरूपता नजर आती थी। आम लोगों ने उन्हें पागल समझ लिया व बच्चों के झुण्ड उन पर पत्थर फेंकने लगे पर हुजूर ने कभी गुस्सा व उफ तक नहीं की। वे उल्टा उन पत्थरों को एकत्रित कर लेते थे। यदि कोई व्यक्ति बच्चों को रोकता तो वे उस आदमी से खफा हो जाते थे।
पागलखाने में बंद किये जाने के उपरांत भी बाबा ताजुद्दीन शहर की सड़कों व गलियों में घूमते नजर आये व हजारों चमत्कार दिखाये। कई बड़े अफसरों ने भी बाबा को बाहर देखा तो उनके पैरों की जमीन खिसक गई। नागपुर से बड़े फौजी अफसर जब सच्चाई का पता लगाने पहुंचे तो डाक्टर ने कहा वे तो कमरे में बंद हैं। जब वे दोनों कमरे के पास पहुंचे तो देखा कि बाबा सींखचों में बंद व ध्यान की मुद्रा में ठीक वैसे ही बैठे दिखे जैसा कि कामठी बाजार के पेड़ों के नीचे बैठे थे।
21 सितंबर, 1908 को नागपुर के महाराजा श्रीमंत राजा बहादुर राधोजी राव भौंसले की कोशिशों से बाबा पागलखाने से रिहा होकर राजा के शाही महल शकरदरा के सामने बनी ‘लालकोठी’ में ठहराये गये जहां स्वयं राजा सुबह-शाम उनको हाजरी देते थे व अपना सारा रिसाला, नौकर-चाकर उनकी खिदमत में रहते थे। बाबा हिंदू-मुस्लिम सभी शिष्यों के यहां रहे धीरे-धीरे बाबा की सेहत नासाज होने लगी व 66 वर्ष की उम्र में 17 अगस्त, 1925 को शकरहरा में उनकी आत्मा चोले को छोड़कर चल बसी।
उनका अंतिम संस्कार ‘ताजबाद’ में किया गया व वहीं उनकी समाधि बनाई गई जो बाबा की पवित्र कब्र के रूप में जानी जाती है। ताजबाद में देशभर से हजारों मुर्शिद उनके दर्शन के लिए आते हैं, लेकिन हुजूर के तीनों मुकामातों ताजबाद शरीफ, शकरदरा शरीफ व वाकी शरीफ (तपस्याभूमि) में जाकर उनका फैसला हासिल करते हैं। उस प्रकार अपनी जीवन लीला से हजरत बाबा ताजुद्दीन औलिया ने संसार को रूहानियत की नई रोशनी दी। बाबा की मजार पर प्रतिवर्ष उर्स मनाया जाता है। बाबा के अकीदतमंत दूरदराज से आकर प्रसाद चढाते है एवं बाबा से मन्नत मांगते है।
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