सारे धर्म संप्रदाय निसंदेह सत्य का ही मार्ग दिखाने का दावा करते हैं। बुद्ध-शिक्षा के अनुसार भी जब तक कोई परमार्थ सत्य (चार आर्य सत्यों) का स्वयं साक्षात्कार नहीं कर लेता तब तक अविद्याग्रस्त ही माना जाता है। यह 'अविद्या' ही है जो कि संस्कारों को जन्म देती है। इन संस्कारों से ही सभी प्राणियों में विज्ञानरूपी जीवनधारा प्रवाहि त होती है। विज्ञानरूपी जीवनधारा के स्थापित होते ही नाम और रूप स्वत: अन्यो न्याश्रित हो जाते हैं। नाम और रूप के संयोग से शरीर बनता है और फिर षट् इंद्रियों (षड़ायतन) का विकास होता है। इन इंद्रियों से स्पर्श उत्पन्न होता है और इंद्रियों द्वारा विषयों का स्पर्श होते ही वेदना (सुख, दु:ख और असुख-अदु:ख) उत्पन्न होती है। वेदना से तण्हा (तृष्णा ) उत्पन्न होती है और तण्हा से उपादान (तीव्र लालसा)। यह उपादान ही है जो कि भव का कारण है और भव ही जन्म, जरा, रोग, मृत्यु, शोक, परिताप, पीड़ा आदि का कारण है जो कि सब के सब दु:ख रूप हैं।
इस प्रकार बुद्ध ने जान लिया कि दु:ख स्कंध का मूल कारण अविद्या ही है।
Негізгі бет 280 # बुद्ध तथा उनके सन्देश - कैसे आत्मा, स्वर्ग और ईश्वर अविद्या का कारण बन हानि पहुंचाते हैं ? 71
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