जय गुरुदेव
वैराग्य, हिन्दू, बौद्ध तथा जैन आदि दर्शनों में प्रचलित प्रसिद्ध अवधारणा है जिसका मोटा अर्थ संसार की उन वस्तुओं एवं कर्मों से विरत होना है जिसमें सामान्य लोग लगे रहते हैं। 'वैराग्य', वि+राग से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ राग से विलग होना है।
योगदर्शन में वैराग्य के 'अपर वैराग्य' और 'पर वैराग्य' दो प्रमुख भेद बतलाये गये हैं।
अपर वैराग्य
यतमान
व्यतिरेक
एकेन्द्रिय
वशीकार
पर वैराग्य
यतमान : जिसमें विषयों को छोड़ने का प्रयत्न तो रहता है, किन्तु छोड़ नहीं पाता यह यतमान वैराग्य है।
व्यतिरेकी : शब्दादि विषयों में से कुछ का राग तो हट जाये किन्तु कुछ का न हटे तब व्यतिरेकी वैराग्य समझना चाहिए।
एकेन्द्रिय : मन भी एक इन्द्रिय है। जब इन्द्रियों के विषयों का आकर्षण तो न रहे, किन्तु मन में उनका चिन्तन हो तब एकेन्द्रिय वैराग्य होता है। इस अवस्था में प्रतिज्ञा के बल से ही मन और इन्द्रियों का निग्रह होता है।
वशीकार : वशीकार वैराग्य होने पर मन और इन्द्रियाँ अपने अधीन हो जाती हैं तथा अनेक प्रकार के चमत्कार भी होने लगते हैं। यहाँ तक तो ‘अपर वैराग्य’ हुआ।
पर वैराग्य-
जब गुणों का कोई आकर्षण नहीं रहता, सर्वज्ञता और चमत्कारों से भी वैराग्य होकर स्वरुप में स्थिति रहती है तब ‘पर वैराग्य’ होता है अथवा एकाग्रता से जो सुख होता है उसको भी त्याग देना, गुणातीत हो जाना ही ‘पर वैराग्य’ है।
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Негізгі бет अगर एक बार कर लोगे तो वैराग्य निश्चित | योगी बुद्धि प्रकाश
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