भैरवी एवं भैरव-पूजा विधान
इस साधना में साधक भैरव का प्रतीक होता है और युवती 'भैरवी का प्रतीक ! सर्वप्रथम साधक युवती को आसन पर लाल कपड़ों (एक विना सिली सूती धोती) में बैठाकर उसके पैरों एवं हाथों में भैरवी चक्र आलता से बनाता है, फिर ललाट में इसके बाद में अंगूठों में लाल धागे को अभिमंत्रित करके तीन बार लपेट कर बांधता है। लाल धागों की तीन-तीन लड़ी लपेट कर पिंडलियों में पहनाता है। इस समय वह मंत्र पाठ करता रहता है जो 'योनिकवच' है और आगे दिया गया है।
इस मंत्र जाप के साथ कलाइयों, बांहों, गले में धागों की लड़ी डाल कर वह सिंदूर लेकर चरणों पर चढ़ाता है और अक्षत पुष्प से पूजा करके उसके वक्षों की पूजा करता है और उसमें कुमकुम लगाता है। इसके बाद वह 'योनिस्तोत्र' का पाठ करते हुए उसकी योनि को आवरणहीन करके उसकी पूजा अक्षत पुष्प से करके मदिरा चढ़ाता है और युवती को प्रसाद रूप में पान कराके स्वयं पान करता है।
भैरव-पूजा
इसके बाद भैरवी भैरव को आसन पर बैठाकर उसके चरणों की पूजा करके उस पर शिवलिंग बनाती है। हथेली और ललाट पर भी शिवलिंग बनाती है। फिर अंगूठों, पिंडलियों, कलाइयों, बांहों, गले में काले सूत का बंधन बांधकर अक्षत पुष्प से लिंग की पूजा करती है।
इसके बाद वह लिंग पर मदिरा चढ़ाती है और प्रसाद रूप में पान करती है। भैरव पीता है।
इसके बाद युवती साधक की बायीं जांघ पर बैठ कर योनितंत्र माहात्म्य सुनती है।
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21 दिन तक रति नहीं
यह साधक और भैरवी की परीक्षा होती है। 21 दिन तक उन्हें यह
क्रिया करनी पड़ती है और योनितंत्र माहात्म्य को सुनना कहना होता है। इस बीच में सभी केलि, हास्य, काम भाव को जाग्रत करने की स्वीकृति है पर उग्र कामभाव में भी रति करने की स्वीकृति नहीं है। यह कामभाव पर नियंत्रण की वाममार्गी तकनीकी है। इसमें साधारण तकनीकी का प्रयोग किया जाता है। अत्यधिक कामभाव उग्र होने लगता है तो कोढ़ी, वीमार, हास्य, करुणा आदि भाव लाकर उसे बुझा दिया जाता है और फिर से काम भाव उग्र किया जाता है। इससे मूलाधार बिंदु की ऊर्जा उत्पादन क्षमता बढ़ जाती है।
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