चलना है दूर मुसाफ़िर
चलना है दूर मुसाफिर,
अधिक नींद क्यों सोये रे ।।
चेत अचेत मन सोच बावरे, अधिक नींद क्यों सोये रे ।
काम क्रोध मद लोभ में फँस के, उमरिया काहे खोए रे ।।
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल ।
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल।।
सिर पर माया मोह की गठरी, संग मौत तेरे होए रे।
वो गठरी तेरी बीच में छिन गई, सिर पकड़ काहे रोए रे ।।
कबीर रसरी पाँव में, कहाँ सोवै सुख चैन ।
साँस नगारा कूच का, बाजत है दिन रैन।।
रस्ता तो वह खूब विकट है. चलना अकेला होए रे ।
साथ तेरे कोई न चलेगा. किसकी आस तू बोए रे ।।
एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं ।
घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं ।।
नदिया गहरी नाव पुरानी, किस विधि पार तू होए रे ।।
कहें कबीर सुनो भई साधो ब्याज के धोखे मूल मत खोए रे ।।
आछे दिन पाछे गए, हरि से कियो न हेत ।
अब पछताय होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।।
- संत कबीरदास
Негізгі бет चलना है दूर मुसाफिर / Chalna Hai Dur Musafir II Kabir Saheb
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