यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे भुइॅ धरे, तब घर पैठे माहिं।।
प्रेम-प्रेम सब कोइ कहैं, प्रेम न चीन्है कोय।
जा मारग साहिब मिलै, प्रेम कहावै सोय॥
जेहि घट प्रेम न सँचरै, सो घट जानि मसान।।
जैसे खाल लोहार की, साँस लेत बिनु प्रान।।
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय ।।
गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानैं घाव।
खेत बुहार्या सूरिमै, मुझ मरणे का चाव।।
गगन दमामा बाजिया, पड़े निशाने चोट।
कायर भागे कछु नहीं, सूरा भागे खोट।।
सूरा सो पहचानिए, जो लरे दीन के हेत।
पूरजा-पूरजा कट मरे, कबहू न छाड़े खेत।।
सूरा के मैदान मे, कायर का क्या काम ।
सूरा सो सूरा मिलै, तब पूरा संग्राम।।
सूरा के मैदान में, कायर फसिया आए |
ना भागे ना लड़ सके, मन ही मन पछताए।।
भागे भला न होयगा, कहाँ धरोगे पाँव।
सिरसा पो सीधे लड़ो, काहे करो कुदान।।
मर जाऊ मांगूँ नहीं, अपने तन के काज।
परमार्थ के कारज में, मोहे न आवे लाज।।
गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताये।।
हर मरें तो हम मरें, और हमरी मरे बलाय।
साँचे गुरु का बालका, मरे ना मारा जाय।।
मेरे गुरु को दो भुजा, गोविंद को भुजा चार।
गोविंद से कछु न हुवा , सद्गुरु तारे पार।।
Негізгі бет कबीर साहेब दोहे
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