जय गुरुदेव
जैन धर्म श्रमण संस्कृति से निकला है तथा इसके प्रवर्तक हैं २४ तीर्थंकर, जिनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) तथा अन्तिम तीर्थंकर भगवान वर्धमान महावीर हैं। जैन धर्म की अत्यन्त प्राचीनता सिद्ध करने वाले अनेक उल्लेख साहित्य और विशेषकर पौराणिक साहित्यों में प्रचुर मात्रा में हैं। श्वेतांबर व दिगम्बर जैन धर्म के दो सम्प्रदाय हैं, तथा इनके ग्रन्थ समयसार व तत्वार्थ सूत्र आदि हैं। जैनों के प्रार्थना - पूजास्थल, जिनालय या मन्दिर कहलाते हैं।
'जिन' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित '। जो 'जिन' के अनुयायी हैं उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है संस्कृत के 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी तन, मन, वाणी को जीत लिया और विशिष्ट आत्मज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त अर्हंत भगवान को जिनेन्द्र या जिन कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान् का धर्म। जिन का अन्य पर्यायवाची शब्द अर्हत/अर्हंत भी है प्राचीन काल में जैन धर्म को आर्हत् धर्म कहा जाता था।
अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। इसे बड़ी सख्ती से पालन किया जाता है खानपान आचार नियम मे विशेष रुप से देखा जा सकता है। जैन दर्शन में कण-कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ताधर्ता नही है। सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है। जैन दर्शन में भगवान न कर्ता और न ही भोक्ता माने जाते हैं। जैन दर्शन मे सृष्टिकर्ता को कोई स्थान नहीं दिया गया है। जैन धर्म में अनेक शासन देवी-देवता हैं पर उनकी आराधना को कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता। जैन धर्म में तीर्थंकरों जिन्हें जिनदेव, जिनेन्द्र या वीतराग भगवान कहा जाता है इनकी आराधना का ही विशेष महत्व है। इन्हीं तीर्थंकरों का अनुसरण कर आत्मबोध, ज्ञान और तन और मन पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है।
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