💠ब्रज रस रसिकों ने प्रेम तत्त्व को सर्वोच्च तत्व माना है, जिसके समक्ष स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपनी भगवत्ता को भुला देते हैं। महारसिकों की वाणी दिव्य प्रेम तत्त्व को 'अनिवर्चनीय' बताकर मौन हो जाती है क्योंकि मायिक जगत में कहीं भी प्रेम का लवलेश नहीं है तथा मायाबद्ध जीवों में इसे समझने की पात्रता भी नहीं है। यद्यपि 'प्रेम' तत्व ही वाणी का विषय नहीं है, पुनः दिव्य प्रेम के भी उत्कृष्ट स्वरूप 'गोपी प्रेम' के विषय में साधकों को समझाना और इस तत्त्व का सम्यक् बोध कराकर इसे जीवन के अंतिम ध्येय के रूप में अपने शरणागत जीवों के भीतर भर देना, यह असम्भव-सा कार्य प्रेमावतार 'जगद्गुरूत्तम' श्री कृपालु जी महाराज ने किया है। श्री महाराज जी ने साधकों के परम लाभ को दृष्टि में रखकर गोपी प्रेम के विषय को स्पष्ट करने हेतु कुछ अति महत्वपूर्ण प्रवचन दिये हैं। इन प्रवचनों में- प्रेम का वास्तविक स्वरूप कैसा होता है, प्रेम के राज्य में जीव की गति कहाँ तक है, हमारा सर्वोच्च लक्ष्य क्या हो, निष्काम प्रेम की कसौटी क्या है, दिव्य प्रेम के विभिन्न स्तर एवं समर्था रति के प्रेम की विशेषता इत्यादि विषयों को अत्यंत सरल एवं स्पष्ट रूप से निरूपित किया गया है। स्वयं परात्पर ब्रह्म श्रीकृष्ण किस-किस प्रकार गोपी प्रेम प्राप्त महापुरुषों के अनुचर बने घूमते हैं, इसका सरस एवं प्रभावशाली निरूपण सुनकर मन उस दिव्य गोपी प्रेम के अलौकिक रस को पाने के लिये लालायित होने लगता है। महारास का रस प्राप्त करने की पात्रता तैयार करने हेतु साधकों के लिये ये प्रवचन अनिवार्य विषय जैसे हैं।
भक्ति मार्ग के अनेक नये आयाम प्रकट करते हुये आध्यात्मिक जगत के गूढ़तम रहस्यों को उद्घाटित करने वाली यह विशेष प्रवचन श्रृंखला अवश्य बारम्बार सुनें।
ये व्याख्यान सन् 1980 से पूर्व काल के हैं तथा इनकी वीडियो रिकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं है, केवल ऑडियो रिकॉर्डिंग ही प्राप्त है। श्रोताओं के विशेष लाभ के दृष्टिगत हम उसी दुर्लभ ऑडियो को यहाँ वीडियो के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। सभी से अनुरोध है कि आप इस परम लाभदायक विषय का एकाग्रचित्त होकर श्रवण करें एवं अधिकाधिक लाभ प्राप्त करें।💠
📼इस वीडियो के कुछ अंश हैं-
गोपी प्रेम के विषय के कुछ भी कहना अनाधिकार चेष्टा है। गोपी प्रेम की बात तो दूर रही प्रेम की बात भी कोई नहीं कह सकता। अर्निवचनियम प्रेमस स्वरुपं। नारद भक्ति सूत्र में नारद जी ने एक सूत्र बना दिया कि प्रेम का स्वरूप अर्निवचनिय है बताया नहीं जा सकता। उसका निरुपण नहीं हो सकता। कैसे? ५१वां सूत्र है ये नारद भक्ति दर्शन का। ५२वें सूत्र में कहते है मुकास्वादन वत। जैसे गूंगा रसगुल्ला खाता है उससे पूछो कैसा है? हूॅं..... बस! गूॅंगा है वो कैसे बतावे और अगर कोई वाणी वाला भी हो कृपालु की राय है कि वो भी नहीं बता सकता। क्यों? इसलिए कि जो अनुभव है वो तो अंतरात्मा का विषय है वाणी का विषय है नहीं। अरे भगवान वगवान की बात छोड़ो, दिव्य प्रेम की बात छोड़ो, संसारी रसगुल्ला कोई खाता है और बहुत बड़ा वक्ता है। पूछो कैसा होता है रसगुल्ला।? ' मीठा '। ये ' मी ' और ' ठा ' अक्षरों के बोलने से बोध हो गया। अजी मीठा माने क्या होता है? अरे तुमने चीनी खाई है? नहीं। गुड़ खाया है? नहीं। अरे कोई मीठी चीज खाई है? जी नहीं, मैं नीम का कीड़ा हूॅं। अब समझाइए रसगुल्ला कैसा होता है। हम तुमको नहीं समझा सकते। ऐसा कहना पड़ेगा उसको। ये संसारी मैटेरियल पदार्थ के विषय में कोई शब्दों के द्वारा निरुपण नहीं कर सकता। सिर हिलायेगा और example देगा फिर भी हार जाएगा। तो दिव्य प्रेम के विषय में वाणी क्या बताएगी जब संसारी विषय में वो असमर्थ है।
-जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज
Full playlist link :- • गोपी प्रेम | Gopi Prem
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कलियुग में दान को ही कल्याण का एकमात्र माध्यम बताया गया है। 'दानमेकं कलौयुगे'।
दान पात्र के अनुसार ही अपना फल देता है तथा भगवान एवं महापुरुष के निमित्त किया गया दान सर्वोत्कृष्ट फल प्रदान करता है।
हम साधारण जीव यथार्थ में यह नहीं जान सकते कि वास्तविक महापुरुष के प्रति किया गया हमारा दान/समर्पण हमारे कल्याण का कैसा अद्भुत द्वार खोल देगा। अतएव, समर्पण हेतु आगे बढिये।
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Негізгі бет गोपी प्रेम -भाग 1/6 | Gopi Prem -Part 1/6
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