बिरसा मुंडा
यह एक स्वतंत्रता सेनानी व लोक नायक थे। इन्होंने ब्रिटिश शासन, महाजनों तथा जमींदारों के खिलाफ आंदोलन किया, जिसे बिरसा उलगुलान कहा गया।
जन्म :- 15 नवंबर 1875 (उलीहातू)।
बृहस्पति के हिसाब से इनका नाम “बिरसा” पड़ा।
माता- पिता का नाम:- माता - करमी हटू, पिता- सुगना मुंडा।
बिरसा मुंडा द्वारा अंग्रेज को खिलाफ दिया गया नारा - ” रानी का शासन खत्म करो और हमारा साम्राज्य स्थापित करो”।
बिरसा मुंडा के द्वारा सुधारवादी आंदोलन चलाया गया और “बिरसाइत संप्रदाय” के प्रवर्तक भी बने।
3 फरवरी 1900 में उन्हें अंग्रेज सरकार द्वारा विद्रोह का दमन करने के लिए गिरफ्तार किया गया।
निधन - 9 जून 1900 को हैजा से उनकी मौत हो गई।
तिलका मांझी:-
जन्म:- 11 फरवरी 1750 (बिहार के सुल्तानगंज के तिलकपुर नामक गांव में) वास्तविक नाम - जबरा पहाड़िया (अंग्रेजों द्वारा इनका नाम तिलका मांझी दिया गया)
यह संथाल जाति के योग्य वक्ता तथा कुशल तीरंदाज थे ।
1767 में अंग्रेजों के झारखंड में प्रवेश के बाद इन्होंने अंग्रेजों की नीति “फूट डालो शासन करो” की सूचना लोगों तक पहुंचा कर संगठित करना शुरू किया। इसके बाद उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ भागलपुर के वनचरीजोर से विद्रोह की शुरुआत की।
1770 में भीषण अकाल पड़ी तब उन्होंने अंग्रेजों का खजाना लूटकर आम आदमी में बांट दिया इसी के साथ उनका “संथाल हूल” (आदिवासी का विद्रोह) शुरू हुआ , जिसमें इनकी जीत हुई।
अंग्रेजों ने 9 महीने में 40 गांव के सरदारों को अपने झांसे में लेकर कर मुक्त कर दिया।
1771 से 1784 तक इन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा ।
शहीदों की गिनती में तिलका मांझी का नाम सबसे पहले आता है।
13 जनवरी 1785 को पेड़ से लटका कर इन्हें फांसी दे दी गई।
बुधु भगत:-
जन्म- 17 फरवरी 1792 ( रांची की रांची के चांहो प्रखंड के अंतर्गत कोयल नदी के तट पर स्थित सिंलगाई गांव में हुआ था) ।
शिक्षा- यह तलवार चलाने में तथा धनुर्विद्या में निपुण थे।
इन्होंने अंग्रेज और साहूकारों के विरुद्ध कई आंदोलन किए।
भारतीय इतिहास के यह एक ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्हें गुरिल्ला युद्ध में निपुणता हासिल थी।
इन्हें पकड़ने( जिंदा एवं मुर्दा )के लिए ब्रिटिश सरकार ने ₹1000 का इनाम रखा था ।
1831-32 में अपनी जमीन छिन जाने, न्याय ना मिलने व जमींदारों के उत्पीड़न से असंतोष ने “कोल विद्रोह” को जन्म दिया।
इस विद्रोह में सिंहभूम, रांची, टोरी, हजारीबाग में भीषण प्रदर्शन किया गया ।
इस विद्रोह में लगभग 1000 लोग मारे गए।
14 फरवरी 1832 को बेटे, भतीजे समेत डेढ़ सौ साथियों के साथ यह शहीद हुए।
सिद्धू और कानू:-
संथाल परगना को पहले जंगल तराई के नाम से जाना जाता था ।
संथाल परगना को अंग्रेजों ने दामिन ए कोह कहा जाता था।
सिद्धू - कान्हू मुर्मू का जन्म भोगनाडीह नामक गांव में हुआ था इसके अलावा इनके दो और भाई थे चांद एवं भैरव।
जन्म - सिद्धू (1815) ,कान्हो (1820) ,चांद (1825) ,भैरव (1835)
इनकी दो बहनों का नाम फूलों मुर्मू व झानो मुर्मू था।
पिता का नाम- चुन्नी माझी
इन्होंने 1855 में ब्रिटिश सत्ता, साहूकारों व जमींदारों के खिलाफ विद्रोह शुरू किया जिसे “संथाल विद्रोह” या “हुल विद्रोह” के नाम से जाना जाता है ।
30 जून 1855 को भोगनाडीह में संथाली आदिवासी की सभाएं हुए जिसमें 10000 लोग एकत्र हुए एवं इसमें सिद्धू को राजा, कान्हो को मंत्री, चांद को मंत्री तथा भैरव को सेनापति चुना गया।
1855 को अंग्रेजों द्वारा भेजी गई सेना को हराकर इन्होंने राजमहल पर कब्जा किया।
10 नंबर 1855 को मार्शल लॉ लगा दिया गया। बरहैत में युद्ध के दौरान चांद व भैरव शहीद हो गए।
सिद्धू-कान्हू द्वारा दिए गए नारे- “अंग्रेज हमारी भूमि छोड़ो”।
सिद्धू- कान्हू को पकड़कर अगस्त में पंच कठिया नामक जगह पर बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दी गई ।
कार्ल मार्क्स ने इस विद्रोह को भारत का प्रथम “जनक्रांति” कहा था।
30 जून को भोकनाडीह में हूल दिवस पर विकास मेला लगाया जाता है ।
संथालो के भय से अंग्रेजों ने बचने के लिए पाकुड़ में मार्टिलो टावर का निर्माण कराया था ,जो आज भी पाकुड़ में स्थित है।
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