जय गुरुदेव
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् |
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् || गीता 7/5||
अर्थ : यह तो मेरी अपरा प्रकृति है, हे महाबाहो ! इससे अतिरिक्त परा प्रकृति को अलग जान, जो जीव-रूप है और जिससे यह जगत् धारण किया जाता है ।। 5 ।।
व्याख्या : भगवान् कह रहे हैं हे महाबाहो ! पांच महाभूतो व मन, बुद्धि व अहंकार से बनी प्रकृति को अपरा प्रकृति कहते हैं। यह अपरा प्रकृति सभी को अनुभव होती रहती है, इस अपरा प्रकृति से सारा संसार बना है, लेकिन इससे भी परे एक दूसरी प्रकृति है, जिसको परा प्रकृति कहते हैं। यह अपरा प्रकृति से भी अति परे है, जो जीव रूप है, जिसको आत्म सत्ता भी कहते हैं, उसी आत्म सत्ता के आधार पर यह अपरा प्रकृति सम्पूर्ण संसार को उत्पन्न कर उसका धारण करती है। इस परा प्रकृति को चेतन भी कहा जाता है। इस परा प्रकृति के कारण ही यह निर्जीव अपरा प्रकृति, चेतनमय दिखाई देती है।
अष्टधा प्रकृति अपरा जड़ है। उसे बताने के पश्चात् उससे भिन्न अपनी परा प्रकृति को भगवान् बताते हैं। वह परा प्रकृति जीवरूप अर्थात् चेतन रूप है जिसके कारण ही शरीर मन और बुद्धि अपनेअपने कार्य इस प्रकार करते हैं मानो वे स्वयं ही चेतन हों।इस चेतन की विद्यमानता में ही उपाधियाँ अपना व्यापार कर सकती हैं अन्यथा नहीं। चैतन्य के बिना हमें न बाह्य स्थूल जगत् का और न आन्तरिक सूक्ष्म विचार रूप जगत् का ही अनुभव और ज्ञान हो सकता है। वही जगत् को धारण किये हुए है। उसके अभाव में हमारी दशा एक पाषाण के समान हो जायेगी जिसमें न चेननता है और न बुद्धिमत्ता।भगवान् के इस कथन को कि परा प्रकृति जगत् का आधार है भौतिक विज्ञान की दृष्टि से विचार करके भी सिद्ध किया जा सकता है। हम अपने घर में रहते हैं जिसका आधार है भूमि। उस भूमिभाग का आधार है शहर शहर का राष्ट्र और राष्ट्र का आधार विश्व है विश्व घिरा हुआ है समुद्र के जल से जिसकी स्थिति वायुमण्डल पर निर्भर करती है। यह वायुमण्डल तो सौरमण्डल अथवा ग्रहमण्डल का एक भाग है। सम्पूर्ण विश्व आकाश में स्थित है और आकाश स्थित है मन में स्थित आकाश की कल्पना पर। मन का आधार है बुद्धि का निर्णय। और क्योंकि बुद्धिवृत्तियों का ज्ञान चैतन्य के कारण ही संभव है इसलिए यह चैतन्य ही सम्पूर्ण जगत् का आधार सिद्ध होता है। व्ाही जगत् का अधिष्ठान है।दर्शनशास्त्र में जगत् का अर्थ केवल इन्द्रियगोचर जगत् ही नहीं वरन् मन तथा बुद्धि के द्वारा अनुभूयमान जगत् भी उस शब्द की परिभाषा मे समाविष्ट है। इस प्रकार बाह्य विषय भावनाएं और विचार ये सब जगत् ही हैं। यह सम्पूर्ण जगत् चेतनस्वरूप परा प्रकृति के द्वारा धारण किया जाता है।
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