. ★ पारमार्थिक स्वार्थ ★
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज
द्वारा स्वरचित पद
'जोइ स्वारथ पहिचान, धन्य सोइ'
की व्याख्या
लेक्चर भाग-3
समुद्र में अनेक तरंगें उठा करतीं हैं,
क्षण-क्षण में
एक तरंग दूसरी तरंग से मिली और फिर
एक तरंग नष्ट हो गई, दूसरी भी नष्ट हो गई।
ये सम्बन्ध तरंग-तरंग का अनित्य है, नश्वर है।
और, तरंग का समुद्र से सम्बन्ध नित्य है।
कोई भी तरंग समुद्र से पृथक नहीं रह सकती।
निकली तब भी समुद्र से सम्बन्ध
समा गई तो भी समुद्र से सम्बन्ध।
इसी प्रकार,
जीव-जीव का नाता नहीं हुआ करता।
जीव-ब्रह्म का ही नाता नाता है।
इसलिये हमारा जो सम्बन्ध है,
वो केवल श्रीकृष्ण से ही है।
अब, केवल श्रीकृष्ण शब्द का अर्थ ये है-
श्रीकृष्ण, उनका नाम, उनका रूप, उनका गुण,
उनकी लीला, उनके धाम, उनके सन्त।
इतने का नाम है- श्रीकृष्ण।
इनमें कहीं भी हमारा सम्बन्ध हो जाये
अन्तःकरण का, बस काम बन गया।
एक जगह हो जाये, दो जगह हो जाये
सब जगह रहे।
ये सब शुद्ध क्षेत्र है, निर्गुण area है, मायातीत।
परमानन्द का स्थान है वहाँ पर
और वही हमको चाहिये।
तो, श्रीकृष्ण से हमारा सम्बन्ध है, ऐसा नहीं
श्रीकृष्ण से 'ही' हमारा सम्बन्ध है,
ऐसा वाक्य बोलो।
Негізгі бет Parmarthik Swarth 3/8 पारमार्थिक स्वार्थ-भाग 3/8
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