जय गुरुदेव
हे पार्थ ! जो अभ्यास द्वारा योग से युक्त होकर अपने चित्त को अन्य कहीं न भटकाते हुए निरंतर चिंतन करता है वह परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।
चित्त हमेशा भटकता ही रहता है, इसको वश करना बड़ा कठिन काम है। ऐसा कोई भी समय नहीं होता जब चित्त पूर्णतया शांत हो जाए। इसलिए यदि चित्त को शांत करना है तो इसका उपाय केवल अभ्यास और वैराग्य ही है। यहाँ भगवान कह रहे हैं हे पार्थ ! जो व्यक्ति निरंतर चित्त को वश करने का अभ्यास करता रहता है, उसके चित्त का भटकाव धीरे-धीरे थमने लगता है और यह एकाग्र हुआ चित्त आत्मा से जुड़ने लगता है। जिसका चित्त, आत्मा से जुड़ जाता है, वह साधक योग युक्त कहलाता है। इसप्रकार निरंतर व दीर्घकाल तक आत्मा का चिंतन करता हुआ योगी, अंत में परम दिव्य पुरुष अर्थात परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है।
जिस व्यक्ति का चित्त दूसरों के सांसारिक विचारों में मगन होता है । वह बहिर्मुखी व्यक्तित्व या बाहरी सोच वाला मनुष्य कहा जाता है । ऐसा मनुष्य अपनी निजी और पारिवारिक प्रगति नहीं परिवार कर पाता , क्योंकि वह दूसरों के लिए दूसरों के बारे में सोचता रहता है । उसके पास उसके अपने अपने परिवार के बारे में सोचने के लिए समय ही नहीं है ।
अपने बारे में और अपने परिवार के बारे में सिर्फ वही व्यक्ति सोच सकता है जो अंतर्मुखी सोच को जानता है ।जिसे निजी सोच /अंतर्मुखी सोच भी कहते हैं । मन का इन दोनों सोच की गलियों में सम्यक मध्य में बने रहना बहुत जरूरी है । तभी मन अवसर आने पर अपने लिए अच्छा निजी सोच सकता है । अवसर आने पर दूसरों के हित के लिए अच्छा सोच सकता है । जो लोग सम्यक सोच रखते हैं । जिनकी सोच अंतर्मुखी ॥ बहिर्मुखी के रूप में साम्यावस्था में /दोनों सोचू अवस्थाओं के मध्य तटस्थ बनी रहती है वही अवसर पड़ने पर अपने लिए और दूसरों के लिए अच्छा सोच सकते हैं ।ऐसे लोग अच्छे भविष्य वक्ता सिद्ध /अच्छे सलाहकार होते हैं ।
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