आज हम वाममार्गी रति-साधनायें पर बात करते है।
कोई भी इन के ऊपर खुल कर बात नही करता
यह साधनाएं बहुत ही शक्तिशाली होती है।
वाममार्ग की एक शाखा 'कौलमत' की है। वाममार्ग तंत्र की वह शाखा है, जो वैदिक आचार संहिता एवं वैदिक तंत्र के विपरीत सूत्रों पर कार्य करती है। वैदिक तंत्र में सारी तंत्र साधनायें, योग, अनुष्ठान, वेदी, मंत्र आदि देव विद्या पर आधारित हैं। इस शाखा में देवियां नहीं हैं, सभी देवता हैं और इस कारण इसमें ऊपर से नीचे, वायें से दायें पावर-सर्किट की धाराओं की साधना की जाती है। जबकि वाममार्ग में मातृका पूजा की पद्धति है और सभी शक्तियों का नामकरण देवियों के नाम पर है। पिंडी पूजा इसी मार्ग की देन है। काली, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवियों भी इसी मार्ग की देवियां हैं। ये लोग नीचे से ऊपर और दायें से बायें ऊर्जा चक्र की साधना करते हैं।
बहुत से सामान्य लोग एवं पंडित आदि भी नहीं जानते कि गौरी, पार्वती, दुर्गा, लक्ष्मी, काली, सरस्वती, त्रिपुरसुन्दरी आदि सभी देवी शक्तियां एवं शिव तथा शिवलिंग आदि वाममार्ग के शक्ति प्रतीक हैं। इन्हें बाद में वैदिक समाज में अंगीकृत किया गया है। वैदिक मार्ग में यही शक्तियां कामदेव (काली), विश्वकर्मा (दुर्गा), वरुण (बाल दुर्गा), ब्रह्मा (लक्ष्मी), विष्णु (त्रिपुरसुन्दरी), गंधर्व (सरस्वती), विश्वेदेवा (रुद्रा), चन्द्रमा (गौरी), परमात्मा (शिव) आदि नामों से उद्धत्त हैं और इनकी साधनायें या अनुष्ठान दक्षिणमार्गी विधि से किया जाता है।
वाममार्ग प्रारंभ में एक ही था और इसमें मातृपूजा होती थी। शिवलिंग इसी मार्ग का एक ऊर्जा प्रतीक है, जो भैरवीचक्र का एक रूप है। वैदिक मार्ग में यह श्री चक्र (महामाया चक्र) है। इस मार्ग में सर्वप्रथम मूलाधार की सिद्धि की जाती है, जबकि वैदिक मार्ग में सहस्त्रार चक्र की सिद्धि पहले की जाती है।
कलान्तर में वाममार्गी में अनेक शाखायें बन गयीं। इनमें 'कौल' भी एक शाखा थी। यह शाखा इतनी लोकप्रिय हुई कि बाद में यह बौद्ध मत की भी एक शाखा की आधारशिला वन गयी। गोरखनाथ, सिद्ध सम्प्रदाय आदि का विकास इसी शाखा से हुआ था।
कोलाचारी सम्प्रदाय में स्त्री को शक्ति का स्वरूप माना गया है। इनका कथन है कि सर्वप्रथम शिवतत्त्व (परमात्मा/मूलतत्त्व) में महायोनि की ही उत्पत्ति हुई, फिर शिवलिंग उस महायोनि के अभाव को उत्पन्न करने के लिए उत्पन्न हुआ। इनके समागम से ही दृष्टि की उत्पत्ति हुई और इसमें अनेकानेक शक्तियां अवतरित होती चली गयीं। मनुष्य योनि में नर 'शिव' का और नारी महामाया 'गौरी' का रूप है। इसमे प्रकृति वश ही शिवलिंग और महायोनि प्रतीक योनि की उत्पत्ति होती है। अन्य जीवों में भी यही है, पर साधना केवल मनुष्य करता है और उसकी प्रकृति के अनुरूप नर 'शिव' नारी 'आद्या-गौरी' है।
कौलाचारियों का सूत्र है कि यह ब्रह्मांड शिवलिंग एवं महायोनि के समागम का फल है और उसी से शक्तिकृत है। इसलिये यदि साधक अपने योग्य अपनी रुचि की नारी सहभागिनी (भैरवी) ढूंढ कर उसके साथ रतिभाव से केलि करता है (इसमें ऊर्जा चक्र के सूत्रों का गोपनीय प्रयोग होता है) तो दोनों में शक्तित्तत्त्व यानी वह ऊर्जा प्राप्त होती है, जो सिर के चांद से मूलतत्त्व की आने वाली धारा को कई गुणा तीव्र कर देती है। इससे नाभिक (हृदय) की शक्ति अत्यधिक बढ़ जाती है और यह शक्ति मूलाधार के त्रिकोण (शक्तित्रिकोण) पर पहुंचकर उसके नाभिक पर पहुंचती है और वहां से लिंग व योनि को आवेशित करती है। (मूलाधार बिंदु) पर पहुंचती है और वहां से लिंग एवं योनि को आवेशित करती है।
Негізгі бет वाममार्गी रति साधना part 1.
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